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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अन्तर दिखाई देता है। यह विचित्रता, यह विषमता निर्हेतुक नहीं हो सकती। इसलिये सुख दुःख आदि विषमताओं का कोई कारण होना चाहिये जैसे कि बीज अंकुर का कारण है। इस विषमता का कारण कर्मही हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि सुख दुःख के कारण तो प्रत्यक्ष ही दिखाई देते हैं। माला, चन्दन, स्त्री आदि सुस्व के कारण हैं और विष, कण्टक आदि दुःख के कारण हैं । फिर दृश्यमान सुख दुःख के कारणों को छोड़कर अदृष्ट कर्म की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है ? सुख दुःरक के इन बाह्य साधनों से भी परे हमें सुख दुःश्व के कारण की खोज इसलिये करनी पड़ती है कि सुख की समान सामग्री प्राप्त पुरुषों के भी सुख दुःश्व में अन्तर दिखाई देता है। इस अन्तर का कारण कर्म के सिवाय और क्या हो सकता है ? एक व्यक्ति को सुख के कारण प्राप्त होते हैं तो इमरे को नहीं। इसका भी नियामक कारण होना चाहिए और वह कर्म ही हो सकता है।
जैसे युवा शरीर बाल शरीर पूर्वक होता है, उसी प्रकार बाल शरीर भी शरीर विशेष पूर्वक होता है और वह शरीर कार्मण अर्थात् कर्मरूप ही है। जन्मान्तर का शरीर बाल शरीर का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि वह जन्मान्तर में ही रह जाता है । विग्रहगति में वह साथ नहीं रहता। इसके सिवाय अशरीरी जीव का नियत शरीर ग्रहण करने के लिये नियत स्थान पर आना भी न बन सकेगा क्योंकि आने का कोई कारण नहीं है। इसलिए बालशरीर के पहले शरीर विशेष मानना चाहिये और वह शरीरविशेष कार्मण शरीर ही है। यही शरीर विग्रहगति में भी जीव के साथ रहता है और उसे उत्पत्ति क्षेत्र में ले जाता है।
दानादि क्रियाएं फलवाली होती हैं क्योंकि वे सचेतन द्वारा