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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
की जाती हैं। जो क्रियाएं सचेतन द्वारा की जाती हैं वे अवश्य फलवती होती हैं जैसे खेती आदि । दानादि क्रियाएं भी सचेतन द्वारा की जाने से फलवती हैं। इस प्रकार दानादि क्रियाओं का फलवती होना सिद्ध होता है। दानादि क्रिया का फल कर्म के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता ।
कर्म की मूर्तता - जैन दर्शन में कर्म पुद्गलरूप माना गया है इसलिये वह मूर्त है। कर्म के कार्य शरीरादि के मूर्त होने से वह भी मूर्त ही है। जो कार्य मूर्त होता है उसका कारण भी मूर्त होता है, जैसे घट का कारण मिट्टी । अमूर्त कार्य का कारण भी अमूर्त होता है, जैसे ज्ञान का कारण आत्मा । इस पर यह शङ्का हो सकती है कि जिस प्रकार शरीरादि कर्म के कार्य हैं उसी प्रकार सुख दुःखादि भी कर्म के ही कार्य हैं पर वे अमूर्त हैं। इसलिये मूर्त कारण से मूर्त कार्य होता है और अमूर्त कारण से अमूर्त कार्य होता है यह नियम सिद्ध नहीं होता। इसका समाधान यह है कि सुख दुःख आदि आत्मा के धर्म हैं और आत्मा ही उनका समवायि ( उपादान ) कारण है। कर्म तो सुख दुःख में निमित्त कारण रूप है। इस लिये उक्त नियम में कोई बाधा नहीं आती। कर्म को मूर्त सिद्ध करने के लिए और भी हेतु दिये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं
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कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनका सम्बन्ध होने पर सुख दुःखादि का ज्ञान होता है, जैसे अशनादि आहार । कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनके सम्बन्ध होने पर वेदना होती है जैसे अग्नि । कर्म मूर्त हैं, क्योंकि आत्मा और उसके ज्ञानादि धर्मों से व्यतिरिक्त होते हुए भी वह बाह्य माला, चन्दन आदि से बल अर्थात् वृद्धि पाता है, जैसे तैल से घड़ा मजबूत होता है। कर्म मूर्त हैं, क्योंकि आत्मा से भिन्न होते हुए भी वे परिणामी हैं जैसे दूध । कर्म के कार्य शरीरादि परिणामी देखे जाते हैं इससे कर्म के परिणामी