________________
भी सेठिया जैन प्रन्थमाला
से आत्मप्रदेशों में हलचल होती है तब जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं । जीव और कर्म का यह मेल ठीक वैसा ही होता है जैसा दूध और पानी का या अग्नि और लोह पिंड का। इस प्रकार प्रात्मप्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते है।
कर्मग्रन्थ में कर्म का लक्षण इस प्रकार बताया है- 'कीरइ जीएण हेउहि जेण तो भएणए कम्म' अर्थात मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है। कर्म का यह लक्षण भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों में घटित होता है। आत्मा के राग द्वेषादि रूप वैभाविक परिणाम भावकर्म है और कर्मवर्गणा के पुद्गलों का सूक्ष्म विकार ट्रम्पकर्म है। राग द्वेषादि वैभाविक परिणामों में जीव उपादान कारण है । इस लिए भावकर्म का कर्ता उपादान रूप से जीव है। द्रव्यकर्म में जीव निमित्त कारण है। इसलिए निमित्त रूप से द्रव्यकर्म का कर्ता भी जीव ही है। भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है
और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है । इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकम इन दोनों का परस्पर बीज और अंकुर की तरह कार्य
कारणभाव सम्बन्ध है। । कर्म की सिद्धि- संसार के सभी जीव आत्म-स्वरूप की
अपेक्षा एक से हैं। फिर भी वे पृथक पृथक् योनियों में भिन्न भिन्न शरीर धारण किये हुए हैं और विभिन्न स्थितियों में विद्यमान हैं। एक राना है तो दूसरा रंक है। एक बुद्धिमान् है तो दूसरा मूर्ख है। एक शक्तिशाली है तो दूसरा सत्त्वहीन है। एक ही माता के उदर से जन्म पाये हुए, एक ही परिस्थिति में पले हुए, सरीखी शिक्षा दिये गये युगल बालकों में भी महान्