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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
(१) प्रणाभोगेणं- बिल्कुल भूल जाने से पञ्चक्रवाण का ख्याल न रहना। (२) सहसागारेणं-मेघ बरसने या दही मथने आदि के समय रोकने पर भी जल और छाछ आदि का मुख में चला जाना। । (३) सागारियागारेणं-जिनके देखने से आहार करने कीशास्त्र में मनाही है, उनके उपस्थित होजाने पर स्थान छोड़ कर दूसरी जगह चले जाना। (४)पाउंटणपसारणेणं- सुन्न पड़ जाने आदि कारण से हाथ पैर आदि अङ्गों को सिकोड़ना या फैलाना। (५) गुरु अब्भुटाणेणं-किसी पाहुने, मुनि या गुरु के पाने पर विनय सत्कार के लिए उठना। (६) परिहावणियागारेणं- अधिक हो जाने के कारण जिस
आहार को परठवना पड़ता हो, तो परठवने के दोष से बचने के लिए उस आहार को गुरु की आज्ञा से ग्रहण कर लेनाः । (७) महत्तरागारेणं-- विशेष निर्जरा आदि खास कारण से गुरु की आज्ञा पाकर निश्चय किए हुए समय से पहले ही पञ्चक्रवाण पार लेना। (८) सबसमाहिबत्तियागारेणं- तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषध आदि ग्रहण करने के निमित्त निर्धारित समय के पहिले ही पञ्चक्रवाण पार लेना। ___ यदि इन कारणों के उपस्थित होने पर त्याग की हुई वस्तु सेवन की जाय तो भी पञ्चक्रवाण भा नहीं होता। इसमें परिठावणिया भागार साधु के लिए ही है । श्रावक के लिए सातं ही आगार होते हैं। (हरिभद्रीयावश्यक प्रत्याख्यानाध्ययन) ५८८-प्रायम्बिल के आठ आगार
आयम्बिल में साढपोरिसी तक सात आगार पूर्वक चारों