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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १७ होता है । वह तुच्छ, नीच तथा ओछे कुल में उत्पन्न होता है। वहाँ भी उसका कोई प्रादर नहीं करता। (४)जो व्यक्ति एक बार भी माया करके उसकी आलोयणा आदि नहीं करता वह आराधक नहीं, विराधक समझा जाता है। (५)जो व्यक्ति एक बार भी सेवन की हुई माया की आलोयणा कर लेता है यावत् उसे अङ्गीकार कर लेता है वह आराधक होता है। (६) जो मायावी बहुत बार माया करके भी आलोयणा आदि नहीं करता वह आराधक नहीं होता। (७) जो व्यक्ति बहुत बार माया करके भी उसकी आलोयणा आदि कर लेता है वह आराधक होता है। (८) 'श्राचार्य या उपाध्याय विशेषज्ञान से मेरे दोषों को जान लेंगे और वे मुझे मायावी ( दोषी) समझेगे' इस डर से वह अपने दोष की आलोयणा कर लेता है। जो मायावी अपने दोषों की आलोचना कर लेता है वह आयु पूरी करने के बाद बहुत ऋद्धि वाले तथा लम्बी स्थिति वाले ऊंचे देवलोक में उत्पन्न होता है। उन देवलोकों में सब तरह की विशाल समृद्धि तथा दीर्घ आयु को प्राप्त करता है। उसका वक्षस्थल हारों से सुशोभित होता है। कड़े आदि दूसरे आभूषणों से हाथ भरे रहते हैं । अंगद, कुंडल, मुकुट वगैरह सभी आभूषणों से मण्डित होता है । उसके हाथों में विचित्र गहने होते हैं, विचित्र वस्त्र और भूषण होते हैं, विविध फूलों की मालाओं का मुकुट होता है, बहुमूल्य और शुभ वस्त्र पहिने होता है। शुभ और श्रेष्ठ चन्दन वगैरह का लेप किये होता है। भास्वर शरीर वाला होता है, लम्बी लटकती हुई वनमाला को धारण करता है । दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य घुति,
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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