________________ श्री सेठिया जैन अन्धमाला 'काय' नहीं जोड़ा गया है। __इस प्रकार अरूपी अजीव के दस भेद हैं। छः द्रव्यों का विशेष विस्तार इसी के दूसरे भाग बोल संग्रह बोल नं० 442 में है। ___(पन्नवणा पद 1) (जीवाभिगम, मूत्र 4) 752- लोकस्थिति दस लोक की स्थिति दस प्रकार से व्यवस्थित है। (1) जीव एक जगह से मर कर लोक के एक प्रदेश में किसी गति, योनिअथवा किसी कुल में निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। यह लोक कीप्रथम स्थिति हे। (2) प्रवाह रूप से अनादि अनन्त काल से मोक्ष के बाधक स्वरूप ज्ञानावरणीयादि आठकों को निरन्तर रूपसे जीव बाँधते रहते हैं। यह दूसरी लोक स्थिति है। (3) जीव अनादिअनन्त काल से मोहनीय कर्म को बाँधते रहते हैं। यह लोक की तीसरी स्थिति है। (4) अनादि अनन्त काल से लोक की यह व्यवस्था रही है कि जीव कभी अजीव नहीं हुआ है, न होता है और न भविष्यत् काल में कभी ऐसा होगा। इसी प्रकार अनीव कभी भी जीव नहीं हुआ है, न होता है और न होगा। यह लोक की चौथी स्थिति है। (5) लोक के अन्दर कभी भी त्रस और स्थावर प्राणियों का सर्वथा अभाव न हुआ है, न होता है और न होगा और ऐसा भी कभी न होता है, न हुआ है और न होगा कि सभीत्रसपाणी स्थावर बन गए हों अथवा सब स्थावर पाणी त्रस बन गए हों। इसका यह अभिप्राय है कि ऐसा समय न आया है, न आता है और न आवेगा कि लोक के अन्दर केवल त्रसपाणी ही रह गए हों अथवा केवल स्थावर प्राणी ही रह गए हों। यह लोकस्थिति का पाँचवां प्रकार है।