________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 435 (2) धर्मास्तिकाय के बुद्धि कल्पित दो तीन संख्यात असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय के देश कहलाते हैं। (3) धर्मास्तिकाय के वे अत्यन्त सूक्ष्म निर्विभाग यानि जिन के फिर दो भाग न हो सकते हों ऐसे भाग जहाँ बुद्धि से कल्पना भी न की जा सकती हो वे धर्मास्तिकाय के प्रदेश कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं। (4) अधर्मास्तिकाय- स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों को स्थिति में (ठहरने में) जो सहायक हो उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं। जैसे थके हुए पथिक के लिए छायादार वृक्ष ठहरने में सहायक होता है। ( ५-६)अधर्मास्तिकाय के भी देश और प्रदेशयेदो भेद होते हैं। (७-८-६)आकाशास्तिकाय-जो जीव और पुद्गलों को रहने के लिए अवकाश दे वह आकाशास्तिकाय कहलाता है। इसके देश और प्रदेशअनन्त हैं, क्योंकि आकाशास्तिकाय लोक और अलोक दोनों में रहता है। अलोक अनन्त है / इसलिए आकाशास्तिकाय के प्रदेश भी अनन्त हैं। (१०)काल(अद्धा समय)-काल को अदा कहते हैं अथवा काल का निर्विभाग भाग अद्धासमय कहलाता है। वास्तव में वर्तमान का एक समय ही काल (अद्धा समय)कहलाता है। अतीत और अनागत का समय काल रूप नहीं है क्योंकि अतीत का तो विनाश हो चुका और अनागत (भविष्यत् काल)अनुत्पत्र है यानि अभी उत्पन्न नहीं हुआ है। इसलिए ये दोनों (अतीत-अनागत) वर्तमान में अविद्यमान हैं। अतः ये दोनों काल नहीं माने जाते हैं,क्योंकि 'वर्तना लक्षणः कालः' यह लक्षण वर्तमान एक समय में ही पाया जाता है। अतः वर्तमान क्षण ही काल (अद्धा समय)माना जाता है। यह निर्विभागी (निरंश) है / इसी लिए काल के साथ में 'अस्ति' और