________________ मी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ___430 (6) लोक अलोक हो गया हो या अलोक लोक हो गया हो ऐसा कभी त्रिकाल में भी न होगा, न होता है और न हुआ है। यह लोक स्थिति का छठा प्रकार है। (7) लोक का अलोक में प्रवेश या अलोक का लोक में प्रवेश न कभी हुआ है, न कभी होता है और न कभी होगा / यह सातवीं लोक स्थिति है। / (8) जितने क्षेत्र में लोक शब्द का व्यपदेश (कथन) हैचहाँ वहाँ जीव हैं और जितने क्षेत्र में जीव हैं, उतना क्षेत्र लोक है। यह आठवीं लोक स्थिति है। (8) जहाँ जहाँ जीव और पुद्गलों की गति होती है वह लोक है और जहाँ लोक है वहीं वहीं पर जीव और पुद्गलों की गति होती है। यह नवीं लोक स्थिति है। (10) लोकान्त में सब पुद्गल इस प्रकार और इतने रूक्ष हो जाते हैं कि वे परस्पर पृथक् हो जाते हैं अर्थात् बिखर जाते हैं / पुद्गलों के रूक्ष हो जाने के कारण जीव और पुद्गल लोक से बाहर जाने में असमर्थ हो जाते हैं / अथवा लोक का ऐसा ही स्वभाव है कि लोकान्त में जाकर पुद्गल अत्यन्त रूत हो जाते हैं जिससे कर्म सहित जीव और पुद्गल फिर आगे गति करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह दसवीं लोक स्थिति है। (ठाणांग, सूत्र 704 ) ७५३-दिशाएं दस दिशाएं दस हैं। उनके नाम (1) पूर्व (2) दक्षिण (3) पश्चिम (4) उत्तर। ये चार मुख्य दिशाएं हैं। इन चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएं हैं। यथा-(५) अग्रिकोण (6) नैऋत कोण (7) वायव्य कोण () ईशान कोण (8) ऊर्ध्व दिशा (10) अधो दिशा। जिधर सूर्य उदय होता है वह पूर्व दिशा है / जिधर सूर्य NA