________________ 414 भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला * गति ऋजु (सरल-सीधे) रूप से या वक्र (टेदे) रूप से होती है, उसे नरक विग्रह गति कहते हैं। __इसी तरह (3) तिर्यश्च गति (4) तिर्यश्च विग्रह गति (5) मनुष्य गति (6) मनुष्य विग्रह गति (7) देव गति (8) देव विग्रह गति समझनी चाहिए / इन सब की विग्रह गति ऋजु रूप से या वक्र रूप से होती है। (6) सिद्ध गति- आठ कर्मों का सर्वथा तय करके लोकाग्र पर स्थित सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त करना सिद्धगति कहलाती है। (10) सिद्ध विग्रह गति-प्रष्ट कर्म से विमुक्त प्राणी की आकाश प्रदेशों का अतिक्रमण (उल्लंघन) रूप जो गति अर्थात् लोकान्त माप्ति वह सिद्ध विग्रह गति कहलाती है। कहीं कहीं पर विग्रह गति का अपरनाम वक्र गति कहा गया है। यह नरक, तिर्यश्च, मनुष्य और देवों के लिए तो उपयुक्त है, क्योंकि उन की विग्रह गति ऋजु रूप से और वक्र रूप से दोनों तरह होती है किन्तु अष्ट कर्म से विमुक्त जीवों की विग्रह गति वक्र नहीं होती। अथवा इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिए कि पहले जो सिद्ध गति बतलाई गई है वह सामान्य सिद्ध गति कही गई है और दूसरी सिद्धयविग्रहगति अर्थात् सिद्धों की अविग्रह-अवक्र (सरल-सीधी) गति होती है। यह विशेष की अपेक्षा से कथित सिद्धयविग्रह गति है। अतः सिद्ध गति और सिद्धयविग्रह गति सामान्य और विशेष की अपेक्षा से कही गई है। (ठाणांग, सूत्र 745 ) 726- दस प्रकार के सर्व जीव ___ (1) पृथ्वीकाय (2) अप्काय (3) तेउ काय (4) वायुकाय (5) वनस्पति काय (6) द्वीन्द्रिय (7) त्रीन्द्रिय (5) चतुरिन्द्रिय (९)पञ्चेन्द्रिय (१०)अनिन्द्रिय।सिद्ध जीव अनिन्द्रिय कहलाते हैं। (ठाणांग, सूत्र 771)