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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह Avvvmovie ७२४-प्राण दस जिन से प्राणी जीवित रहें उन्हें प्राण कहते हैं / वे दस हैं(१) स्पशेनेन्द्रिय बल प्राण (2) रसनेन्द्रिय बल प्राण (3) घ्राणेन्द्रिय बल प्राण (4) चचुरिन्द्रिय पल प्राण (5) श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण (6) काय बल प्राण (7) बचन बल प्राण (8) मन बल प्राण (६)श्वासोच्छास बल प्राण (10) आयुष्य बल पाण। इन दस प्राणों में से किसी प्राण का विनाश करना हिंसा है। जैन शास्त्रों में हिंसा के लिए प्रायः प्राणातिपात शब्द का ही प्रयोग होता है। इसका अभिप्राय यही है कि इन दस प्राणों * में से किसी भी प्राण का अतिपात (विनाश) करना ही हिंसा है। (ठाणांग, सुत्र 48 की टीका ) ( प्रवचनसारोद्धार गाथा 1066) एकेन्द्रिय जीवों में चार प्राण होते हैं-स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण, काय बलमाण,वासोच्छ्वास बल प्राण,आयुष्य बल प्राणाद्वीन्द्रिय में छः माण होते हैं- चार पूर्वोक्त तथा रसनेन्द्रिय और वचन बल प्राण / त्रीन्द्रिय में सात प्राण होते हैं- छः पूर्वोक्त और घ्राणेन्द्रिय। चतुरिन्द्रिय में आठमाण होते हैं-पूर्वोक्त सात और चक्षरिन्द्रिय। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में नौ प्राण होते हैं-पूर्वोक्त आठ और श्रोत्रेन्द्रिय / संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में दस प्राण होते हैं-पूर्वोक्त नौ और मन बल प्राण। 725- गति दस गतियाँ दस बतलाई गई हैं। वे निम्न प्रकार हैं(१) नरकगति-नरक गति नाम कर्म के उदय से नरक पर्याय की प्राप्ति होनानरकगति कहलाती है। नरक गतिको निरय गति भी कहते हैं। अय नाम शुभ, उससे रहित जोगति हो वह निरय गति कहलाती है। (२)नरक विग्रह गति-नरक में जाने वाले जीवों की जो विग्रह
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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