________________ 394 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जैसे जीव द्रव्य / अर्पित और अनर्पित के विचार को अर्पितानपितानुयोग कहते हैं। (6) भाविताभावितानुयोग- जिसमें दूसरे द्रव्य के संसर्ग से उसकी वासना आगई हो उसे भावित कहते हैं। यह दो तरह का है-प्रशस्तभावित और अप्रशस्तभावित / संविग्नभावित अर्थात् मुक्ति की इच्छा होना, संसार से ग्लानि होना आदि प्रशस्तभावित है / इसके विपरीत संसार की ओर झुकाव होना अप्रशस्तभावित है। इन दोनों के दोदो भेद हैं-वामनीय और अवामनीय। किसी संसर्ग से पैदा हुए जो गुण और दोष दूसरे संसर्ग से दूर हो जायें उन्हें वामनीय अर्थात् वमन होने योग्य कहते हैं। जो दूर न हों व अवामनीय हैं। जिसे किसी दूसरी वस्तु का संसर्ग प्राप्त न हुआ हो या संसर्ग होने पर भी किसी प्रकार का असर न हो उसे अभावित कहते हैं। इसी प्रकार घटादि द्रव्य भी भावित और प्रभावित दोनों प्रकार के होते हैं। इस प्रकार के विचार को भाविताभावितानुयोग कहते हैं। (7) बाह्याबाह्यानुयोग- बाह्य अर्थात् विलक्षण और अबाह्य अर्थात् समान के विचार को बाह्याबाह्यानुयोग कहते हैं। जैसेजीव द्रव्य बाह्य है क्योंकि चैतन्य वाला होने से आकाशास्तिकाय वगैरह से विलक्षण है। वह अबाह्य भी है, क्योंकि अरूपी होने से आकाशास्तिकाय आदि के समान है / अथवा चैतन्य गुण वाला होने से जीवास्तिकाय से अपाय है। अथवा घट वगैरह द्रव्य बाह्य हैं और कर्मचैतन्य वगैरह अबाह्य हैं, क्योंकि प्राध्यात्मिक हैं। इस प्रकार के अनुयोग को बाह्याबाह्यानुयोग कहते हैं। (८)शाश्वताशाश्वतानुयोग- शाश्वत अर्थात् नित्य और अशाश्वत अर्थात् अनित्य / जैसे जीव द्रव्य नित्य है, क्योंकि इसकी कभी उत्पत्ति नहीं हुई और न कभी अन्त होगा। मनुष्य वगैरह