________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 393 उत्पन्न होता रहे तो काम करने वाले को फल प्राप्त न होगा क्योंकि काम करने वाला काम करते ही नष्ट हो जाएगा। जिसने कुछ नहीं किया उसे फल प्राप्त होगा। पहले देखी हुई बात का स्मरण नहीं हो सकेगा / उसके लिए अभिलाषा भी न हो सकेगी। इस लोक तथा परलोक के लिए की जाने वाली धार्मिक क्रियाएं व्यर्थ हो जाएंगी। इसलिए किसी एक वस्तु का पूर्वापर सभी पयोयों में रहना अवश्य मानना चाहिए / इस तरह द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को सिद्ध करना मातृकापदानुयोग है। / (3) एकार्थिकानुयोग-एक अर्थ वाले शब्दों का अनुयोग करना अथवा समान अर्थ वाले शब्दों की व्युत्पत्ति द्वारा वाच्यार्थ में संगति बैठाना एकाथिकानुयोग है। जैसे-- जीव द्रव्य के वाचक पर्याय शब्द हैं- जीव, प्राणी, भूत, सत्त्व वगैरह / जीवन अर्थात् प्राणों के धारण करने से वह जीव कहलाता है। प्राण अर्थात् श्वास लेने से प्राणी कहा जाता है / हमेशा होने से भूत कहा जाता है। हमेशा सत् होने से सत्त्व है इत्यादि। (४)करणानुयोग-करण अर्थात् क्रिया के प्रति साधक कारणों का विचार / जैसे जीव द्रव्य भिन्न भिन्न क्रियाओं को करने में काल, स्वभाव,नियति और पहले किए हुए कर्मों की अपेक्षा रखता है। अकेला जीव कुछ नहीं कर सकता / अथवा मिट्टी से घड़ा बनाने में कुम्हारको चक्र, चीवर, दण्ड आदि करणों की आवश्यकता होती है। इस प्रकार तात्त्विक बातों के करणों की पर्यालोचना करना करणानुयोग है। (5) अर्पितानर्पितानुयोग-विशेषण सहित वस्तु को अर्पित कहते हैं।जैसे- द्रव्य सामान्य है, विशेषण लगाने पर जीव द्रव्य, फिर विशेषण लगाने पर संसारी जीवद्रव्य / फिर त्रस, पञ्चेन्द्रिय, मनुष्य इत्यादि / अनर्पित अर्थात् विना विशेषण का सामान्य।