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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
३८.
पुरुष का भयभीत होना, घबराना, रोमाञ्च, शरीर का काँपना वगैरह क्रियाएं भय संज्ञा हैं। (३) मैथुन संज्ञा-पुरुषवेद के उदयसे स्त्री के अंगों को देखने, छूने वगैरह की इच्छा तथा उससे होने वाले शरीर में कम्पन आदि को, जिन से मैथुन की इच्छा जानी जाय, मैथुन संज्ञा कहते हैं। (४)परिग्रह संज्ञा-लोभरूप कषाय मोहनीय के उदय से संसारबन्ध के कारणों में आसक्ति पूर्वक सचित्त और अचित्त द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा परिग्रह संज्ञा कहलाती है। (५) क्रोध संज्ञा-क्रोध के उदय से आवेश में भर जाना, मुँह का सूखना, आँखें लाल हो जाना और काँपना वगैरह क्रियाएं क्रोध संज्ञा हैं। (६) मान संज्ञा- मान के उदय से आत्मा के अहङ्कारादिरूप परिणामों को मान संज्ञा कहते हैं। (७) माया संज्ञा- माया के उदय से चुरे भाव लेकर दूसरे को ठगना, झूठ बोलना वगैरह माया संज्ञा है। (%) लोभ संज्ञा- लोभ के उदय से सचित्त या अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा करना लोभ संज्ञा है। (8) ओघ संज्ञा-मतिज्ञानावरण वगैरह के क्षयोपशम से शब्द
और अर्थ के सामान्य ज्ञान को ओघ संज्ञा कहते हैं। (१०) लोक संज्ञा- सामान्यरूप से जानी हुई बात को विशेष रूप से जानना लोकसंज्ञा है। अर्थात् दर्शनोपयोग को प्रोष संज्ञा तथा ज्ञानोपयोग को लोकसंज्ञा कहते हैं। किसी के मत से ज्ञानोपयोग ओघ संज्ञा है औरदर्शनोपयोग लोकसंज्ञा। सामान्य प्रवृत्ति को ओघसंज्ञा कहते हैं तथा लोकदृष्टि को लोकसंज्ञा कहते हैं, यह भी एक मत है।
(गणांग, सूत्र ५२) ((भगवती शतक ७ उद्देशा ८)