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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला न लौटाई जाय उसे औधिक कहते हैं । (१०) सूचीकुशाग्रसंवर- सूई और कुशाग्र वगैरह वस्तुएं जिन के बिखरे रहने से शरीर में चुभने बगैरह का डर है, उन सब को समेट कर रखना । सामान्य रूप से यह संवर सारी ture उपधि के लिए है। जो वस्तुएं आवश्यकता के समय गृहस्थ से लेकर काम होने पर वापिस कर दी जायँ उन्हें प्रप ग्रहिक उपधि कहते हैं । जैसे सूई वगैरह । अन्त के दो द्रव्य संवर हैं। पहले आठ भावसंवर । (ठाणांग, सूत्र ७०६ ) १८६ ७११- संवर दस संबर से विपरीत अर्थात् कर्मों के आगमन को असंवर कहते हैं । इसके भी संवर की तरह दस भेद हैं। इन्द्रिय, योग और उपकरणादि को वश में न रख कर खुले रखना अथवा बिखरे पड़े रहने देना क्रमशः दस प्रकार का असंबर है । (ठाणांग, सूत्र ७०६ ) ७१२ - संज्ञा दस वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि प्राप्ति के लिये आत्मा की क्रिया विशेष को संज्ञा कहते हैं । अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहार आदि को चाहता है। उसे संज्ञा कहते हैं। किसी के मत से मानसिक ज्ञान ही संज्ञा है। अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन संज्ञा है। इसके दस भेद हैं. - (१) आहार संज्ञा - क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि आहार के लिए पुद्गल ग्रहण करने की क्रिया को आहार संज्ञा कहते हैं। (२) भय संज्ञा - भयवेदनीय के उदय से व्याकुल चित्त वाले
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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