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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
की प्राप्ति होती है। (५) संजमे-पञ्चक्वाण से संयम की प्राप्ति होती है। (६) अण्णहत्ते- संयम से अनाव की प्राप्ति होती है अर्थात् नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता। .. (७) तवे- इसके बाद अनशन भादि बारह प्रकार के तप की
ओर प्रवृत्ति होती है। (८) बोदाणे- तप से पूर्वकृत कर्मों का नाश होता है अथवा
आत्मा में रहे हुए पूर्वकृत कर्म रूपी कचरे की शुद्धि हो जाती है। (६) अकिरिय- इसके बाद आत्मा अक्रिय हो जाता है अर्थात् मन, वचन और काया रूप योगों का निरोध हो जाता है। (१०) निव्वाणे- योगनिरोध के पश्चात् जीव का निर्वाण हो जाता है अर्थात् जीव पूर्वकृत कर्म विकारों से रहित हो जाता है। कर्मों से छूटते ही जीव सिद्धगति में चला जाता है। सिद्धगति को प्राप्त करना ही जीव का अन्तिम प्रयोजन है।
. (ठाणांग, सूत्र ११० ठाण ३ उद्देशा ३) ७०६- दर्शनविनय के दस बोल
वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और केवली भाषित धर्म में श्रद्धा रखना दर्शन या सम्यक्त्व है। दर्शन के विनय,भक्ति और श्रद्धा को दर्शनविनय कहते हैं। इसके दस भेद हैं(१) अरिहन्तों का विनय । (२) अरिहन्तमरूपितधर्म का विनय। (३) आचार्यों का विनय । (४) उपाध्यायों का विनय । (५) स्थविरों का विनय । (६) कुल का विनय । (७) गण का विनय ।