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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
( १ ) आचार्य की वैयावच्च । (२) उपाध्याय की बेयावच्च । (३) स्थविर की वेयावच्च । ( ४ ) तपस्वी की बेयावच्च । (५) रोगी की वेयावच्च
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(६) शैक्ष अर्थात् नव दीक्षित साधु की बेयावच्च । (७) कुल अर्थात् एक प्राचार्य के शिष्यपरिवार की वेयावच्च । (८) गण - साथ पढ़ने वाले साधुओं के समूह की वेयावच्च । (६) संघ की वेयावच्च ।
(१०) साधर्मिक अर्थात् समान धर्म वालों की वेचावच्च ।
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ग्रंथालय
( भगवती शतक २५ उद्देशा ७ )
पर्युपासना के परम्परा दस फल
शुद्ध चारित्र पालने वाले श्रमणों की पर्युपासना (सेवा, भक्ति तथा सत्संग) करने से उत्तरोत्तर निम्न लिखित दस फलों की प्राप्ति होती है
सवणे गाणे य विन्नाणे पञ्चकखाणे य संजमे । अहते तवे चैव वोदाणे त्रकिरिच निव्वाणे ॥ ( १ ) सवणे - निर्ग्रन्थ साधुओं की पर्युपासना (सेवा, भक्ति और सत्संग) से श्रवण की प्राप्ति होती है अर्थात् साधु लोग धर्मकथा फरमाते हैं और शास्त्रों का स्वाध्याय किया करते हैं । इस लिए उनकी सेवा में रहने से शास्त्रों के श्रवण की प्राप्ति होती है। (२) णाणे - शास्त्रों के श्रवण से श्रुत ज्ञान की प्राप्ति होती है। (३) विभाणे - श्रुतज्ञान से विज्ञान की प्राप्ति होती हैं अर्थात् हेय (त्यागने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) पदार्थों का ज्ञान होता है।
( ४ ) पच्चक्खाणे - हेयोपादेय का ज्ञान हो जाने पर पच्चक्वाण
कस्कृति बिम दिर
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