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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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हो तो एक सौ हाथ तक अस्वाध्याय माना गया है। मनुष्यादि का शरीर खुला पड़ा हो तो सौ हाय तक अस्वाध्याय है और यदि ढका हुआ हो तो भी उसके कुत्सित होने के कारण सौ हाथ जमीन छोड़ कर ही स्वाध्याय करना चाहिए।
(ठाणांग, सत्र ७१४) ___ नोट-असज्झानों का अधिक विस्तार व्यवहार स्त्र भाष्य
और नियुक्ति उद्देशे ७ से जानना चाहिए। ६६२-धर्म दस ____ वस्तु के स्वभाव, ग्राम नगर वगैरह के रीति रिवाज तथा साधु वगैरह के कर्तव्य को धर्म कहते हैं। धर्म दस प्रकार का है(१) ग्रामधर्म- हर एक गाँव के रीति रिवाज तथा उनकी व्यवस्था अलग अलग होती है। इसी को ग्रामधर्म कहते हैं। (२) नगरधर्म- शहर के प्राचार को नगरधर्म कहते हैं। वह भी हर एक नगर का प्रायः भिन्न भिन्न होता है। (३) राष्ट्रधर्म-- देश का प्राचार । (४) पाखण्ड धर्म- पाखण्डी अर्थात् विविध सम्भदाय वालों
का आचार। (५) कुलधर्म- उग्र कुल आदि कुलों का आचार। अथवा गच्छों के समूह रूप चान्द्र वगैरह कुलों का आचार अर्थात् समाचारी। (६) गणधर्म- मल्ल वगैरह गणों की व्यवस्था अथवा जैनियों के कुलों का समुदाय गण कहलाता है, उसकी समाचारी। (७) संघधर्म- मेले वगैरह का प्राचार अर्थात् कुछ आदमी इकडे होकर जिस व्यवस्थाको बाँध लेते हैं, अथवा जैन सम्पदाय के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ कीव्यवस्था। (८) श्रुतधर्म-श्रुत अर्थात् आचाराङ्ग वगैरह शास्त्र दुर्गति में पड़ते हुए प्राणी को ऊपर उठाने वाले होने से धर्म हैं।