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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
जीव व सुखावह वाद कहलाता है। इसमें प्राणियों के संयम का प्रतिपादन किया गया है। तथा इस वाद का अध्ययन मोक्ष का कारण माना गया है । इसीलिए यह सर्वमाण भूत जीव सत्त्व 1 सुखावह वाद कहलाता है।
ठाणांग, सूत्र ७४२ )
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६८६ - पइण्णा दस
तीर्थङ्कर या गणधरों के सिवाय सामान्य साधुओं द्वारा रचे गए ग्रन्थ पइण्णा (प्रकीर्णक) कहलाते हैं । ( १ ) चउसरण पइण्णा- इसमें ६३ गाथायें हैं। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवलिप्ररूपित धर्म इन चार का शरण महान् कल्याणकारी है। इनकी यथावत् आराधना करने से जीव को शाश्वत सुखों की प्राप्ति होती है। इस पइण्णा में अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवलिमरूपित धर्म गुणों का कथन किया गया है। (२) उर पच्चक्खाण पइण्णा- इसमें ७० गाथाएं हैं। बाल मरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण का स्वरूप काफी विस्तार के साथ बतलाया गया है। बालमरण से मरने वाले प्राणियों को बहुत काल तक संसार में परिभ्रमरण करना पड़ता है 1 पण्डितमरण से संसार के बन्धन टूट जाते हैं। इसलिए प्राणियों को पण्डितमरण की आराधना करनी चाहिए ।
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(३) महा पच्चक्स्वाण पइण्णा- इसमें १४२ गाथाएं हैं । इनमें बालमरण आदि का ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। मरण तो धीरपुरुष और कायर पुरुष दोनों को अवश्य प्राप्त होता है। ऐसी दशा में धैर्य पूर्वक मरना ही श्रेष्ठ है जिससे श्रेष्ठ गति प्राप्त हो या मोक्ष की प्राप्ति हो। इसलिए अन्तिम अवस्था में अठारह पापों का त्याग कर निःशल्य हो सब जीवों को खमा कर धैर्य पूर्वक पण्डित मरण मरना चाहिए ।
( ४ ) भत्त परिण्णा- इसमें १७२ गाथाएं हैं। इस पइण्णा में