________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
1
• (५) क्षायिक सम्यक्त्व - जीव अजीवादि पदार्थों को यथार्थ रूप में जानकर उन पर विश्वास करने को सम्यक्त्व कहते हैं । मोहनीय कर्म सम्यक्त्व गुण का घातक है। उसका नाश होने पर पैदा होने वाला पूर्ण सम्यक्त्व ही क्षायिकसम्यक्त्व है (६) अरूपीपन- अच्छे या बुरे शरीर का बन्ध नाम कर्म के उदय से होता है । कार्मण आदि शरीरों के सम्मिश्रण से जीव रूपी हो जाता है । सिद्धों के नामकर्म नष्ट हो चुका है। उन का जीव शरीर से रहित है, इसलिये वे अरूपी हैं । (७) अगुरुलघुत्व-रूपी होने से सिद्ध भगवान् न हल्के होते न भारी। इसी का नाम अगुरुलघुत्व है ।
1
I
(८) अनन्तशक्ति - आत्मा में अनन्त शक्ति अर्थात् बल है I अन्तराय कर्म के कारण वह दबा हुआ है। इस कर्म के दूर होते ही वह प्रकट होजाता है अर्थात् आत्मा में अनन्तशक्ति व्यक्त (प्रकट) हो जाती है ।
ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की प्रकृतियों को अलग अलग गिनने से सिद्धों के इकतीस गुण भी हो जाते हैं । प्रवचनसारोद्धार में इकतीस ही गिनाए गए हैं। ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की दो, अन्तराय, की चार, नामकर्म की दो, गोत्रकर्म की दो और अन्तराय की पाँच, इस प्रकार कुल इकतीस प्रकृतियाँ होती हैं । इन्हीं इकतीस के क्षय से इकतीस गुण प्रकट होते हैं । इनका विस्तार इकतीसवें बोल में दिया जायगा ।
(अनुयोगद्वार क्षायिकभाव ) ( प्रवचन सारोद्धार द्वार २७६ ) ( समवायांग ३१ ) ५६८ - ज्ञानाचार आठ
ज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए जो आचरण जरूरी है उसे ज्ञानाचार कहते हैं । स्थूलदृष्टि से इसके आठ भेद हैं
५