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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
का राजा, जिसने चण्डप्रद्योत को हराया था तथा भाणेज. को राज्य देकर दीक्षा ली थी)। (ठाणांग सू० ६२१) ५६७- सिद्ध भगवान् के आठ गुण
आठ कर्मों का निर्मूल नाश करके जो जीव जन्म मरण रूप संसार से छूट जाते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। कर्मों के द्वारा आत्मा की ज्ञानादि शक्तियाँ दबी रहती हैं। उनके नाश से मुक्त आत्माओं में आठ गुण प्रकट होते हैं और आत्मा अपने पूर्ण विकास को प्राप्त कर लेता है। वे आठ गुण ये हैं(१) केवलज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्म के नाश से आत्मा का ज्ञानगुण पूर्णरूप से प्रकट हो जाता है। इससे आत्मा समस्त पदार्थों को जानने लगता है । इसीको केवलज्ञान कहते है। (२) केवलदर्शन- दर्शनावरणीय कर्म के नाश से आत्मा का दर्शनगुण पूर्णतया प्रकट होता है। इससे वह सभी पदार्थों को देखने लगता है । यही केवलदर्शन है। (३) अव्याबाध सुख- वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा दुःख का अनुभव करता है । यद्यपि सातावेदनीय के उदय से सुख भी प्राप्त होता है किन्तु वह सुख क्षणिक, नश्वर, भौतिक और काल्पनिक होता है। वास्तविक और स्थायी आत्मिक सुख की प्राप्ति वेदनीय के नाश से ही होती है। जिस में कभी किसी तरह की भी बाधा न आवे ऐसे अनन्त सुख को अव्यावाधसुख कहते हैं। (४) अक्षयस्थिति- मोक्ष में गया हुआ जीव वापिस नहीं आता, वहीं रहता है। इसीको अक्षयस्थिति कहते हैं। आयुकर्म के उदय से जीव जिस गति में जितनी आयु बाँधता है उतने काल वहाँ रह कर फिर दूसरी गति में चला जाता है । सिद्ध जीवों के आयु कर्म नष्ट हो जाने से वहाँ स्थिति की मर्यादा नहीं रहती। इस लिये वहाँ अक्षयस्थिति होती है ।