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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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नियत ( होनहार) से ही होते हैं ।
भगवान् - सद्दालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे इन बर्तनों को चुरा ले, फेंक दे, फोड़ दे अथवा तुम्हारी अग्निमित्रा भार्या के साथ मनमाने कामभोग भोगे तो उस पुरुष को तुम क्या दण्ड दोगे ? सद्दालपुत्र- भगवन्! मैं उस पुरुष को बुरे भले शब्दों से उलाहना दूं, डंडे से मारूँ, रस्सी से बाँध दूं और यहाँ तक कि उसके प्राण भी ले लूँ ।
भगवान - सद्दालपुत्र! तुम्हारी मान्यता के अनुसार तो न कोई पुरुष तुम्हारे बर्तन चुराता है, फेंकता है या फोड़ता है और न कोई तुम्हारी मित्रा भार्या के साथ काम भोग भोगता है किन्तु जो कुछ होता है वह सब भवितव्यता से ही हो जाता है । फिर तुम उस पुरुष को दण्ड क्यों देते हो ? इसलिए तुम्हारी यह मान्यता कि 'उत्थान आदि कुछ नहीं हैं सब भवितव्यता से ही हो जाता है' मिथ्या है।
भगवान् के इस कथन से सद्दालपुत्र को बोध हो गया । भगवान् के पास धर्मोपदेश सुन कर उस ने आनन्द श्रावक की तरह श्रावक के बारह व्रत अङ्गीकार किये। तीन करोड़ सोनैये और एक गोकुल रखा । भगवान् को वन्दना नमस्कार कर सद्दालपुत्र ने वापिस अपने घर आकर अग्निमित्रा भार्या को सब वृत्तान्त कहा। फिर अग्निमित्रा भार्या से कहने लगा कि हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं। अतः तुम भी जाओ और श्राविका के बारह व्रत अङ्गीकार करो। अग्निमित्रा भार्या ने पति की बात को स्वीकार किया । सदालपुत्र ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को (नौकरों को) एक श्रेष्ठ धर्मरथ जोत कर लाने की आज्ञा दी जिस में तेज चलने वाले एक समान खुर और पूँछ बाले एक ही रंग के तथा जिनके सींग कई रंगों से रंगे हुए हों ऐसे
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