________________
३१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
श्रावक को कुछ भी जवाब देने में समर्थ नहीं हुआ। इसलिए श्रावक की स्वनामाङ्कित मुद्रिका और दुपट्टा जहाँ से उठाया था उसी शिला पट्ट पर रख कर स्वस्थान को चला गया।
उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहाँ पधारे । भगवान् का आगमन सुन कुण्डकोलिक बहुत प्रसन्न हुआ और भगवान् के दर्शन करने के लिए गया। भगवान् ने उस देव और कुण्डकोलिक के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए उनका जिक्र कर कुण्डकोलिक से पूछा कि क्या यह बात सत्य है ? कुएकोलिक ने उत्तर दिया कि भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं वैसी ही घटना मेरे साथ हुई है। तब भगवान् सब श्रमण निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को बुला कर फरमाने लगे कि गृहस्थावास में रहते हुए गृहस्थ भी अन्यथिकों को अर्थ, हेतु, प्रश्न और युक्तियों से निरुत्तर कर सकते हैं तो हे आर्यो! द्वादशांग का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों को तो उन्हें (अन्ययथिकों को) हेतु और युक्तियों से अवश्य ही निरुत्तर करना चाहिए।
सब श्रमण निर्ग्रन्यों ने भगवान् के इस कथन को विनय के साथ तहत्ति (तथेति) कह कर स्वीकार किया।
कुण्डकोलिक श्रावक को व्रत, नियम,शील आदि का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत होगये। जब पन्द्रहवां वर्ष बीत रहा था तब एक समय कुएडकोलिक ने अपने घर का भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंप दिया और आपधर्मध्यान में समय विताने लगा। सूत्रोक्त विधि से श्रावक की ग्यारह पडिमाओं का अाराधन किया । अन्तिम समय में संलेखना कर सौधर्म कल्प के अरुणध्वज विमान में देवपने से उत्पन्न हुआ। वहाँ से चलकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जायगा।