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३०४ श्री सेठिया जैन ग्रन्धमालो (कान्ति), धृति (धीरज) और कीर्ति से रहित. तँ धर्म, पुण्य, स्वर्ग
और मोक्ष की अभिलाषा रखता है। इस लिए हे कामदेव ! तुझे शीलव्रत, मुणव्रत, विरमणव्रत तथा पञ्चक्रवाण, पोषधोपवास . श्रादिसे विचलित होकर उन्हें खण्डित करना और छोड़ना नहीं कल्पता है किन्तु मैं तुझे इनसे विचलित करूँगा। यदि त इनसे विचलित नहीं होगा तो इस तलवार की तीक्ष्णधार से तेरे शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दूँगा जिससे आर्त ध्यान करता हुआ अकाल में ही जीवन से अलग कर दिया जायगा। पिशाच के ये शब्द सुन कर कामदेव श्रावक को किसी प्रकार का भय, त्रास, उद्वेग, क्षोभ, चञ्चलता और सम्भ्रम न हुआ किन्तु वह निर्भय होकर धर्मध्यान में स्थिर रहा । पिशाच ने दूसरी बार और तीसरी वार भी ऐसा ही कहा किन्तु कामदेव श्रावक किश्चिन्मात्र भी विचलित न हुआ। उसे अविचलित देख कर वह पिशाच तलवार से कामदेव के शरीर के टुकड़े टुकड़े करने लगा। कामदेव इस असह्य और तीव्र वेदना को समभाव पूर्वक सहन करता रहा। कामदेव को निग्रन्थ प्रवचनों से अविचलित देख कर वह पिशाच अति कुपित होकर उसे कोसता हुआ पौषधशाला से बाहर निकला । पिशाच का रूप छोड़ कर उसने एक भयङ्कर और मदोन्मत्त हाथी का रूप धारण किया। पौषधशाला में प्राफर कामदेव श्रावक को अपनी सैंड में उठा कर ऊपर आकाश में फैंक दिया । आकाश से वापिस गिरते हुए कामदेव को अपने तीखे दाँतों पर झेल लिया। फिर जमीन पर पटक कर पैरों से तीन बार रोंदा (मसला)। इस असह्य वेदना को भी कामदेव ने सहन किया। वह जब जरा भी विचलित न हुआ तब पिशाच ने एक भयङ्कर महाकाय सर्पका रूप धारण किया । सर्प बन कर वह कामदेव के शरीर पर चढ़ गया। गर्दन को तीन घेरों से लपेट कर