________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
करता था । नगरी के अन्दर कामदेव नामक एक गाथापति रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम भद्रा था। कामदेव के पास बहुत धन था । छ: करोड़ सोनैये उसके खजाने में थे । छः करोड़ व्यापार में लगे हुए थे और छ: करोड़ सोनैये प्रविस्तार ( घर का सामान, द्विपद, चतुष्पद आदि) में लगे थे। गायों के छः गोकुल थे जिस में साठ हजार गायें थीं। इस प्रकार वह बहुत ऋद्धिसम्पन्न था । श्रानन्द श्रावक की तरह वह भी नगर में प्रतिष्ठित एवं राजा और प्रजा सभी के लिए मान्य था ।
३०७
एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे । कामदेव भगवान के दर्शन करने के लिए गया । आनन्द श्रावक की तरह कामदेव ने भी श्रावक के व्रत अङ्गीकार fre और धर्मध्यान करता हुआ विचरने लगा । एक दिन वह पौधशाला में पौषध करके धर्मध्यान में लगा हुआ था । अर्द्धरात्रि के समय एक मिध्यादृष्टि देव कामदेव श्रावक के पास आया। उस देव ने एक महान् पिशाच का रूप बनाया । उसने आँख, कान, नाक, हाथ, जंघा आदि ऐसे विशाल, विकृत और भयङ्कर बनाये कि देखने वाला भयभीत हो जाय। मुँह फाड़ रखा था। जीभ बाहर निकाल रखी थी । गले में गिरगट (रिकांटिया) की माला पहन रखी थी। चूहों की माला बना कर कन्धों पर डाल रखी थी। कानों में गहनों की तरह नेवले ( नौलिया) पहने हुआ था । सर्पों की माला से उसने अपना वक्षस्थल (छाती) सजा रखा था। हाथ में तलवार लेकर वह पिशाच रूप धारी देव पौषधशाला में बैठे हुए कामदेव के पास
या । ति कुपित होता हुआ और दांतों को किटकिटाता हुआ बोला हे कामदेव ! मार्थिक का प्रार्थिक (जिसकी कोई इच्छा नहीं करता ऐसी मृत्यु की इच्छा करने वाला), ही (लज्जा), श्री