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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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छाती में डंक मारा । इतने पर भी कामदेव निर्भय होकर धर्मध्यान में दृढ रहा । उसके परिणामों में जरा भी फरक नहीं
आया । तब वह पिशाच हार गया, दुखी तथा बहुत खिम हुआ। धीरे धीरे पीछे लौट कर पौषधशाला से बाहर निकला | सर्प के रूप को छोड़ कर अपना असली देव का दिव्य रूप धारण किया। पोषधशाला में आकर कामदेव श्रावक.से इस प्रकार कहने लगा-अहो कामदेव श्रमणोपासक! तुम धन्य हो, कृतपुण्य हो, तुम्हारा जन्म सफल है। निर्ग्रन्थ प्रवचनों में तुम्हारी दृढ श्रद्धा और भक्ति है। हे देवानुप्रिय !एक समय शक्रेन्द्र ने अपने सिंहासन पर बैठ कर चौरासी हजार सामानिक देव तथा अन्य बहुत से देव और देवियों के सामने ऐसा कहा कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में कामदेव नामक एक श्रमणोपासक रहता है। आज वह अपनी पौषधशाला में पौषध करके डाभ के संथारे पर बैठा हुआ धर्मध्यान में तल्लीन है। किसी देव, दानव और गन्धर्व में ऐसा सामर्थ्य नहीं है जो कामदेव श्रावक को निर्ग्रन्थ प्रवचनों से डिगा सके और उसके चित्त को चश्चल कर सके । शक्रेन्द्र के इस कथन पर मुझे विश्वास नहीं हुआ । इस लिये तुम्हारी परीक्षा करने के लिये मैं यहाँ आया
और तुम्हें अनेक प्रकार के परिषह उपसर्ग उत्पन्न कर कष्ट पहुँचाया, किन्तु तुम जरा भी विचलित न हुए। शक्रेन्द्र ने तुम्हारी दृढता की जैसी प्रशंसा की थी वास्तव में तुम वैसे ही हो। मैंने जो तुम्हें कष्ट पहुँचाया उसके लिये मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिये । श्राप क्षमा करने के योग्य हैं। “अब मैं आगे से कभी ऐसा काम नहीं करूँगा । ऐसा कह कर वह देव दोनों हाथ जोड़ कर कामदेव श्रावक के पैरों में गिर पड़ा । इस प्रकार अपने अपराध की क्षमा याचना कर वह देव