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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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भवों को देख लेने से ।
( ४ ) अकस्मात् किसी देव का दर्शन होने पर उसकी ऋद्धि कान्ति और अनुभाव वगैरह देखने पर ।
(५) नए उत्पन्न अवधिज्ञान से लोक के स्वरूप को जान लेने पर । . (६) नए उत्पन्न अवधिदर्शन से लोक को देखने पर ।
(७) नए उत्पन्न मन:पर्ययज्ञान से अढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञा जीवों के मनोभावों को जानने पर ।
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(८) नवीन उत्पन्न केवलज्ञान से सम्पूर्ण लोकालोक को जान लेने पर ।
(६) नवीन उत्पन्न केवलदर्शन से सम्पूर्ण लोकालोक को जान लेने पर ।
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(१०) केवलज्ञान, केवलदर्शन सहित मृत्यु होने से सब दुःख तथा जरा मरण के बन्धन छूट जाने पर ।
( दशा श्रुतस्कन्ध दशा ५ ) ( समवायांग १०)
६७५- बल दस
पाँच इन्द्रियों के पाँच बल कहे गये हैं। यथा- (१) स्पर्शनेन्द्रिय बल (२) रसनेन्द्रिय बल (३) घ्राणेन्द्रिय बल (४) चक्षुरिन्द्रिय बल (५) श्रोत्रेन्द्रिय बल । इन पाँच इन्द्रियों को बल इसलिए माना गया है क्योंकि ये अपने अपने अर्थ (विषय) को ग्रहण करने में समर्थ हैं।
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( ६ ) ज्ञान बल - ज्ञान अतीत, अनागत और वर्तमान काल के पदार्थ को जानता है । अथवा ज्ञान से ही चारित्र की आराधना भली प्रकार हो सकती है, इसलिए ज्ञान को बल कहा गया है। (७) दर्शन बल - अतीन्द्रिय एवं युक्ति से अगम्य पदार्थों को विषय करने के कारण दर्शन बल कहा गया है। (८) चारित्र बल - चारित्र के द्वारा आत्मा सम्पूर्ण संगों का त्याग
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