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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कर अनन्त, अव्यावाध, ऐकान्तिक और आत्यन्तिक आत्मीय आनन्द का अनुभव करता है। अतःचारित्र को भी बल कहा गया है। (8) तप बल- तप के द्वारा आत्मा अनेक भवों में उपार्जित 'अनेक दुःखों के कारणभूत अष्ट कर्मों की निकाचित कर्मग्रन्थि को भी तय कर डालता है ! अतः तप भी बल माना गया है। (१०) वीर्य बल- जिससे गमनागमनादि विचित्र क्रियाएं की जाती हैं, एवं जिसके प्रयोग से सम्पूर्ण, निराबाध सुख की प्राप्ति हो जाती है उसे वीर्य बल कहते हैं।
(ठाणांग, सूत्र ७४०) ६७६- स्थण्डिल के दस विशेषण । मल, मूत्र आदि त्याज्य वस्तुएं जहाँ त्यागी जायँ उसे स्थण्डिल कहते हैं। नीचे लिखे दस विशेषणों से युक्त स्थण्डिल 'में ही साधु को मल मत्र आदि परठना कल्पता है। (१) जहाँ न कोई आता जाता हो न किसी की दृष्टि पड़ती हो। (२) जिस स्थान का उपयोग करने से दूसरे को किसी प्रकार का कष्ट या हानि न हो, अर्थात् जो स्थान निरापद हो । (३) जो स्थान समतल हो अर्थात् ऊँचा नीचा न हो। (४) जहाँ घास या पत्ते न हों। (५) जो स्थान चींटी, कुन्थु आदि जीवों से रहित हो। (६) जो स्थान बहुत संकड़ा न हो, विस्तृत हो । (७) जिसके नीचे की भूमि अचित्त हो। (८) अपने रहने के स्थान से दूर हो। (8) जहाँ चूहे आदि के बिल न हों। (१०) जहाँ पाणी अथवा बीज फैले हुए न हों।
. (उत्तराध्ययन अध्ययन २४ गाथा १६-१८)