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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वन्दना करनी पड़ती है। (8) अनवस्थाप्याई-तप के बाद दुवारा दीक्षा देने के योग्य। . - जब तक अमुक प्रकार का विशेष तप न करे, उसे संयम या. - दीक्षा नहीं दी जा सकती । तप के बाद दुबारा दीक्षा लेने पर
ही जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि हो। (१०)पारांचिकाई-गच्छ से बाहर करने योग्य । जिस प्रायश्चित्त ' में साधु को संघ से निकाल दिया जाय ।
__साध्वी या रानी आदि का शील भंग करने पर यह प्रायश्चित्त ' दिया जाता है। यह महापराक्रम वाले आचार्य को ही दिया जाता
है। इसकी शुद्धि के लिए छः महीने से लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी की तरह कठोर तपस्या करनी पड़ती । है । उपाध्याय के लिए नवें प्रायश्चित्त तक का विधान है। सामान्य साधु के लिए मूल प्रायश्चित्त अर्थात् पाठवें तक का।
जहाँ तक चौदह पूर्वधारी और पहले संहनन वाले होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त रहते हैं। उनका विच्छेद होने के बाद । मूलाई तक आठ ही प्रायश्चित्त होते हैं।
- (भगवती शतक २५ उ० ७) (ठाणांग, स्त्र ७३३) ६७४- चित्त समाधि के दस स्थान
तपस्या तथा धर्म चिन्ता करते हुए कर्मों का पर्दा हल्का पड़ जाने से चित्त में होने वाले विशुद्ध आनन्द को चित्त " समाधि कहते हैं। चित्त समाधि के कारणों को स्थान कहा
जाता है । इसके दस भेद है--
(१) जिस के चित्त में पहले धर्म की भावना नहीं थी, उसमें • धर्म भावना आजाने पर चित्त में उल्लास होता है।
(२) पहले कभी नहीं देखे हुए शुभ स्वम के आने पर। (३) जाति स्मरण वगैरह ज्ञान उत्पन्न होने पर अपने पूर्व