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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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आलोचना प्रायश्चित्त कहते हैं। (२) प्रतिक्रमणाई- प्रतिक्रमण के योग्य । प्रतिक्रमण अर्थात्
दोष से पीछे हटना और भविष्य में न करने के लिए 'मिच्छामि . दुक्कड' कहना। जो प्रायश्चित्त सिर्फ प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाय
गुरु के समीप कह कर आलोचना करने की भी आवश्यकता न पड़े उसे प्रतिक्रमणाहे कहते हैं। (३) तदुभयाई-- आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य।
जोप्रायश्चित्त दोनों से शुद्ध हो। इसे मिश्रप्रायश्चित्त भी कहते हैं। - (४) विवेकाई--अशुद्ध भक्तादि के त्यागने योग्य। जो प्रायश्चित्त
आधाकर्म आदि अाहार का विवेक अर्थात् त्याग करने से शुद्ध हो जाय उसे विवेकाह कहते हैं। (५) व्युत्सर्गाहे-- कायोत्सर्ग के योग्य। शरीर के व्यापार को रोक कर ध्येय वस्तु में उपयोग लगाने से जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि होती है उसे व्युत्सर्गार्ह कहते हैं। (६) तपाहे - जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि तप से हो।
(७) छेदाई-दीक्षा पर्याय छेद के योग्य । जो प्रायश्चित्त दीक्षा : पर्याय का छेद करने पर ही शुद्ध हो। (८) मूलाई- मूल अर्थात् दुवारा संयम लेने से शुद्ध होने योग्य । ऐसा प्रायश्चित्त जिसके करने पर साधु को एक बार लिया हुआ संयम छोड़ कर दुबारा दीक्षा लेनी पड़े।
नोट- छेदाई में चार महीने, छः महीने या कुछ समय की दीक्षा कम करदी जाती है। ऐसा होने पर दोषी साधु उन सब साधनों को वन्दना करता है, जिनसे पहले दीक्षित होने पर भी पर्याय कम कर देने से वह छोटा हो गया है। मूलाई में उसकासंयम बिल्कुल नहीं गिना जाता । दोषी को दुबारादीक्षा लेनी पड़ती है और अपने से पहले दीक्षित सभी साधुओं को