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________________ "२६० श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) दिé- जिम अपराध को प्राचार्य वगैरह ने देख लिया " हो, उसी की आलोचना करना। (४) बायरं- सिर्फ बड़े बड़े अपराधों की आलोचना करना। (५) मुहुर्म- जो अपने छोटे छोटे अपराधों की भी आलोचना '. कर लेता है वह बड़े अपराधों को कैसे छोड़ सकता है, यह विश्वास उत्पन्न कराने के लिए सिर्फ छोटे छोटे पापों की । आलोचना करना। (६) छिन्नं- अधिक लज्जा के कारण प्रच्छन्न अर्थात् जहाँ कोई न सुन रहा हो, ऐसी जगह आलोचना करना । (७) सद्दालुप्रयं- दूसरों को सुनाने के लिए जोर जोर से बोल कर आलोचना करना। (८) बहुजण-- एक ही अतिचार की बहुत से गुरुओं के पास आलोचना करना। .. (8) अम्बत्त-अगीतार्थ अर्थात् जिस साधु को किस अतिचार . के लिए कैसा प्रायश्चित्त दिया जाता है, इसका पूरा ज्ञान नहीं है , उसके सामने आलोचना करना । (१०) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना। (भगवती शतक २५ उद्देशा ७ ) ( ठाणांग, सूत्र ७३३) ६७३- प्रायश्चित्त दस '. अतिचार की विशुद्धि के लिए आलोचना करना या उस के लिए गुरु के कहे अनुसार तपस्या आदि करना प्रायश्चित्त है। इसके दस भेद हैं - :: (१) आलोचनाई- संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष । स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट करना आलोचना है। जो प्रायश्चित्त आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय उसे आलोचनाई या
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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