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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) दिé- जिम अपराध को प्राचार्य वगैरह ने देख लिया " हो, उसी की आलोचना करना। (४) बायरं- सिर्फ बड़े बड़े अपराधों की आलोचना करना।
(५) मुहुर्म- जो अपने छोटे छोटे अपराधों की भी आलोचना '. कर लेता है वह बड़े अपराधों को कैसे छोड़ सकता है, यह
विश्वास उत्पन्न कराने के लिए सिर्फ छोटे छोटे पापों की । आलोचना करना।
(६) छिन्नं- अधिक लज्जा के कारण प्रच्छन्न अर्थात् जहाँ कोई न सुन रहा हो, ऐसी जगह आलोचना करना । (७) सद्दालुप्रयं- दूसरों को सुनाने के लिए जोर जोर से बोल कर आलोचना करना। (८) बहुजण-- एक ही अतिचार की बहुत से गुरुओं के
पास आलोचना करना। .. (8) अम्बत्त-अगीतार्थ अर्थात् जिस साधु को किस अतिचार . के लिए कैसा प्रायश्चित्त दिया जाता है, इसका पूरा ज्ञान
नहीं है , उसके सामने आलोचना करना । (१०) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७ ) ( ठाणांग, सूत्र ७३३) ६७३- प्रायश्चित्त दस '. अतिचार की विशुद्धि के लिए आलोचना करना या उस
के लिए गुरु के कहे अनुसार तपस्या आदि करना प्रायश्चित्त है।
इसके दस भेद हैं - :: (१) आलोचनाई- संयम में लगे हुए दोष को गुरु के समक्ष । स्पष्ट वचनों से सरलता पूर्वक प्रकट करना आलोचना है। जो प्रायश्चित्त आलोचना मात्र से शुद्ध हो जाय उसे आलोचनाई या