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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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हृदय से करता है। (8) अमायी- कपट रहित । अपने पाप को बिना छिपाए खुले दिल से आलोचना करने वाला सरल व्यक्ति । (१०) अपश्चात्तापी- आलोचना लेने के बाद जो पश्चात्ताप न करे। ( भगवती श० २५ उ० ७ ) (ठाणांग, सत्र ७३३ ) ६७१-आलोचना देने योग्य साधु के दस गुण
दस गुणों से युक्त साधु आलोचना देने योग्य होता है। 'प्राचारवान् ' आदि पाठ गुण इसी भाग के आठवें बोल संग्रह बोल नं० ५७५ में दे दिये गए हैं। (8) प्रियधर्मा-- जिस को धर्म प्यारा हो । (१०) दृढधर्मा-- जो धर्म में दृढ हो।
( भगवती शतक २५ उद्देशा ७ ) ( ठाणांग, स्त्र ७३३ ) ६७२-- आलोचना के दस दोष __जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन करके उसके लिए उचित प्रायश्चित्त लेना आलोचना है । आलोचना का शब्दार्थ है, अपने दोषों को अच्छी तरह देखना । आलोचना के दस दोष हैं। इन्हें छोड़ते हुए शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिए। वे इस प्रकार हैंआकंपयित्ता अणुमाणइत्ता, दिड वायरंच सुहमंचा। छन्नं सदालुप्रयं, बहुजण अश्वत्त तस्सेवी॥ (१) आकंपयित्ता-प्रसन्न होने पर गुरु थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे यह सोच कर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोषों की आलोचना करना। (२) अणुमाणइत्ता- बिल्कुल छोटा अपराध बताने से प्राचार्य थोड़ा दण्ड देंगे यह सोच कर अपने अपराध को बहुत छोटा करके बताना अणुमाणइत्ता दोष है।