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मो जैनसिद्धान्त बोल संग्रह
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भङ्ग अशुद्ध हैं। इन तीनों भङ्गों से किया गया आहार माहारपरिहरणोपघात कहलाता है। (६) ज्ञानोपघात- ज्ञान सीखने में प्रमाद करना ज्ञानोपघात है। (७)दर्शनोपघात-दर्शन (समकित) में शंका, कांता, विचिकित्सा करना दर्शनोपघात कहलाता है । शंकादि से समकित मलीन हो जाती है। शंकादि समकित के पाँच दूषण हैं। इनकी विस्तृत व्याख्या इसके प्रथम भाग बोल नं. २८५ में दे दी गई है। (८) चारित्रोपघात-आठ प्रवचन माता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति में किसी प्रकार का दोष लगाने से संयम रूप चारित्र का उपघात होता है। अतः यह चारित्रोपघात कहलाता है। (8) अचियत्तोपघात- (अप्रीतिकोपघात) गुरु आदि में पूज्य भाव न रखना तथा उनकी विनय भक्ति न करना अचियत्तोपघात (अप्रीतिकोपघात) कहलाता है। (१०) संरक्षणोपघात-परिग्रह से निवृत्त साधु को वस्त्र, पात्र तथा शरीरादि में मूर्छा (ममत्व) भाव रखना संरक्षणोपघात कहलाता है।
(ठाणांग, सत्र ७३८) ६६६- विशुद्धि दस
संयम में किसी प्रकार का दोष न लगाना विशुद्धि है। उपरोक्त दोषों के लगने से जितने प्रकार का उपघात बताया गया है, दोष रहित होने से उतने ही प्रकार की विशुद्धि है। उसके नाम इस प्रकार हैं- (१) उद्गम विशुद्धि (२) उत्पादना विशुद्धि (३) एषणा विशुद्धि (४) परिकर्म विशुद्धि (५) परिहरणा विशुद्धि (३) ज्ञान विशुद्धि (७) दर्शन विशुद्धि, (८) चारित्र विशुद्धि (8) अचियत्त विशुद्धि (१०) संरक्षण विशुद्धि । इनका स्वरूप उपघात से उल्टा समझना चाहिए । ( ठाणांग, सूत्र ५३८)