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________________ श्री सेठिया जैन मन्यमाला समय के बाद भी वापिस गच्छ में आकर मिल जाता है तो उसके उपकरण क्षित नहीं माने जाते हैं, किन्तु शिथिलाचारी • एकलविहारी जो विगय आदि में आसक्त है उसके वस्त्रादि क्षित माने जाते हैं। स्थान (वसति) परिहरणोपघात-एक ही स्थान पर चातुर्मास में चार महीने और शेष काल में एक महीना ठहरने के पश्चात् वह स्थान कालातिक्रान्त कहलाता है। अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु को चातुर्मास में चार मास और शेष काल में एक महीने से अधिक एक ही स्थान पर रहना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार जिस स्थान या शहर और ग्राम में चातुर्मास किया है, उसी जगह दो चातुर्मास दूसरी जगह करने से पहिले वापिस चातुर्मास करना नहीं कल्पता है और शेष काल में जहाँ एक महीना ठहरे हैं, उसी जगह (स्थान) पर दो महिने से पहले आना साधु को नहीं कल्पता । यदि उपरोक्त मर्यादित समय से पहिले उसी . स्थान पर फिर आ जाये तो उपस्थापना दोष होता है। इसका यह अभिप्राय है जिस जगह जितने समय तक साधु ठहरे हैं, उससे दुगुना काल दूसरे गांव में व्यतीत कर फिर उसी स्थान पर आ सकते हैं। इससे पहले उसी स्थान पर पाना साधु को नहीं कल्पता इससे पहिले आने पर स्थान परिहरणोपघातदोष लगता है। __ आहार के विषय में चार भङ्ग (भांगे) होते हैं। यथा(क) विधिगृहीत, विधिभुक्त (जो आहार विधिपूर्वक लाया गया हो और विधिपूर्वक ही भोगा गया हो)। (ख) विधिगृहीत, अविधिभुक्त। (ग) अविधिगृहीत, विधिभुक्त । (घ) अविधिगृहीत, अविधिभुक्त । इन चारों भङ्गों में प्रथम भङ्ग ही शुद्ध है। आगे के तीनों ।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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