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श्री जैन सिद्धान्तपोल संग्रह
२५५ है। एषणा के दस दोष बोल नं० ६६३ में दे दिए गए हैं। .. (४) परिकर्मोपघात- वस्त्र, पात्रादि के छेदन और सीवन से ' होने वाली अशुद्धता परिकर्मोपघात कहलाती है। वस्त्र का परिकर्मोपघात इस प्रकार कहा गया है
वस्त्र के फट जाने पर जो कारी लगाई जाती है वह थेगलिका कहलाती है। एक ही फटी हुई जगह पर क्रमशः तीन थेगलिका के ऊपर चौथी थेगलिका लगाना वस्त्र परिकर्म कहलाता है। .. पात्र परिकर्मोपघात-ऐसा पात्र जो टेढा मेढा हो और अच्छी तरह साफ न किया जा सकता हो वह अपलक्षण पात्र कहा जाता है। ऐसे अपलक्षण पात्र तथा जिस पात्र में एक, दो, तीन या अधिक बन्ध (थेगलिका) लगे हुए हों, ऐसे पात्र में अर्ष मास (पन्द्रह दिन) से अधिक दिनों तक भोजन करना पात्रपरिकर्मोपचात कहलाता है। __वसति परिकर्मोपघात-- रहने के स्थान को वसति कहते हैं। साधु के लिए जिस स्थान में सफेदी कराई गई हो, अगर,चन्दन
आदि का धूप देकर सुगन्धित किया गया हो, दीपक आदि से प्रकाशित किया गया हो, सिक्त (जल आदि का छिड़कना) किया गया हो, गोवर आदि से लीपा गया हो, ऐसा स्थान वसति परिकर्मोपघात कहलाता है। (५)परिहरणोपघात- परिहरण नाम है सेवन करना, अर्थात् अकल्पनीय उपकरणादि को ग्रहण करना परिहरणोपघात कहलाता है। यथा- एकलविहारी एवं स्वच्छन्दाचारी साधु से सेवित उपकरण सदोष माने जाते हैं। शास्त्रों में इस प्रकार की व्यवस्था है कि गच्छ से निकल कर यदि कोई साधु अकेला विचरता है और अपने चारित्र में दृढ़ रहता हुभा दूध, दही आदि विगयों में मासक्त नहीं होता ऐसा साधु यदि बहुत