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________________ मी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २३९ विनय भक्ति न होने से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता और संसार की वृद्धि होती है। यह भी सभी तीर्थङ्करों के साधुओं के लिए है। (६) व्रतकल्प- महाव्रतों का पालन करना बतकल्प है। प्रथम और अन्तिम तीर्थडुर के शासन में पाँच महावत हैं। इसी को पंचयाम धर्म भी कहते हैं । बीच के तीर्थडूरों में चार ही महाव्रत होते हैं । इस को चतुर्याम धर्म कहा जाता है। मध्यम तीर्थङ्करों के साधु ऋजुपाज्ञ होने से चौथे व्रत को पाँचवें में अन्तर्भत कर लेते हैं, क्योंकि अपरिगृहीत स्त्री का भोग नहीं किया जाता, इसलिए चौथा व्रत परिग्रह में ही आ जाता है। __ यह कल्प सभी तीर्थङ्करों के साधुओं के लिए स्थित है अर्थात हमेशा नियमित रूप से पालने योग्य है । (७) ज्येष्ठ कल्प- ज्ञान, दर्शन और चारित्र में बड़े को ज्येष्ठ कहते हैं । प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन में उपस्थापना अर्थात् बड़ी दीक्षा में जो साधु बड़ा होता है वही ज्येष्ठ माना जाता है। मध्य तीर्थडुरों के शासन में निरतिचार चारित्र पालने वाला ही बड़ा माना जाता है । बड़ी या छोटी दीक्षा के कारण कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। ___ बड़ी दीक्षा के लिए नीचे लिखा विधान है- जिसने साधु के आचार को पढ़ लिया है, अर्थ जान लिया है, विषय को समझ लिया है जो छः काय की हिंसा या छः अवतों (पाँच हिंसादि और रात्रि भोजन) का परिहार मन, वचन और काया से करता है, नव प्रकार से (मन, वचन और काया से करना, कराना तथा अनुमोदन करना)शुद्ध संयम का पालन करता है, ऐसे साधु को उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) अर्थात् महावत देने चाहिएं। ___ यदि पिता, पुत्र, राजा और मन्त्री आदि दो व्यक्ति एक साथ
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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