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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पिंड है। राजपिंड लेने के विषय में बताए गए साधु के प्राचार को राजपिंड कल्प कहते हैं। साधु को राजपिंड न लेना चाहिए। राजपिंड लेने में बहुत से दोष हैं-वहाँ बहुत से नौकर चाकर
आते जाते रहते हैं, उनसे धक्का आदि लग जाने का डर है। किसी खास अवसर पर साधु और भिक्षापात्रों को देख कर अमङ्गल की संभावना से द्वेष भाव उत्पन्न हो जाता है। वहाँ से आहारादि की अधिक स्वादिष्ट वस्तुएं मिलने पर गृद्धि पैदा हो सकती है। हाथी, घोड़े, दास, दासी आदि में आसक्ति हो सकती है । इस प्रकार आत्म विराधना आदि दोष लगते हैं । इन से तथा लोकनिन्दा से बचने के लिए साधु को राजपिंड ग्रहण नहीं करना चाहिए । राजपिंड आठ तरह का होता है- (१) अशन (२) पान (३) खादिम (४) स्वादिम (५) वस्त्र (६) पात्र (७) कम्बल (८) रजोहरण । ये आठ वस्तुएं राजद्वार से लेना नहीं कल्पता। यह कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के .. साधुओं के लिए ही है। (५) कृतिकर्म कल्प-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अपने से बड़े को वन्दना आदि करना कृतिकमे कल्प है। इसके दो भेद हैंबड़े के आने पर खड़े होना और पाते हुए के सन्मुख जाना। साधुओं में छोटी दीक्षा पर्याय वाला लम्बी दीक्षा पर्याय वाले को वन्दना करता है, किन्तु साध्वी कितनी ही लम्बी दीक्षा वाली हो वह एक दिन के दीक्षित साधु को भी वन्दना करेगी। कृतिकर्म का पालन न करने से नीचे लिखे दोष होते हैं
अहङ्कार की वृद्धि होती है। अहङ्कार अर्थात् मान से नीच कर्म का बन्ध होता है। देखने वाले कहने लगते हैं- इस प्रवचन में विनय नहीं है, क्योंकि छोटा बड़े को वन्दना नहीं करता। ये लोकाचार को नहीं जानते । इस प्रकार की निन्दा होती है।