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श्री जैन सिद्धान्तबोल संग्रह
करने वाला और व्यवस्था तोड़ने वाले को दण्ड देने वाला । (६) गणस्थविर - गण की व्यवस्था करने वाला । (७) संघस्थविर - संघ की व्यवस्था करने वाला । (८) जातिस्थविर - जिस व्यक्ति की आयु साठ वर्ष से अधिक हो । इस को स्थविर भी कहते हैं ।
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( 8 ) श्रुतस्थविर - समवायांग आदि अङ्गों को जानने वाला । (१०) पर्यायस्थविर - बीस वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला |
(ठाणांग, सूत्र ७६१)
६६१ - श्रमणधर्म दस
मोक्ष की साधन रूप क्रियाओं के पालन करने को चारित्र धर्म कहते हैं । इसी का नाम श्रमणधर्म है । यद्यपि इसका नाम श्रमण अर्थात् साधु का धर्म है, फिर भी सभी के लिए जानने योग्य तथा आचरणीय है। धर्म के ये ही दस लक्षण माने जाते हैं । जैन सम्प्रदाय भी धर्म के इन लक्षणों को मानते हैं । वे इस प्रकार हैं
खंती मद्द सचं सो
अज्जव, मुत्ती तवसंजमे अ बोधवं ।
अकिंचणं च, बंभं चजइधम्मो ॥
( १ ) क्षमा - क्रोध पर विजय प्राप्त करना । क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी शान्ति रखना ।
( २ ) मार्दव -- मान का त्याग करना । जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान, लाभ और बल इन आठों में से किसी का मदन करना । मिथ्याभिमान को सर्वथा छोड़ देना ।
(३) आर्जव - कपटरहित होना। माया, दम्भ, ठगी आदि का सर्वथा त्याग करना ।
(४) मुक्ति - लोभ पर विजय प्राप्त करना। पौगलिक वस्तुओं पर बिल्कुल आसक्ति न रखना ।