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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
दशमी के दिन ज्ञातखण्ड वन के अन्दर अकेले महावीर स्वामी ने दीक्षा ली । तीर्थङ्करों को मति, श्रुत और अवधि ज्ञान तो जन्म से ही होता है। दीक्षा लेते ही भगवान् को मन:पर्यय नामक चौथा ज्ञान उत्पन्न होगया । एक समय अस्थिक ग्राम के बाहर शूलपाणि यक्ष के देहरे में भगवान् चतुर्मास के लिए ठहरे । एक रात्रि में भगवान् महावीर स्वामी को कष्ट देने के लिए शूलपाणि यक्ष ने अनेक प्रकार के उपसर्ग दिए । हाथी, पिशाच और सर्पका रूप धारण कर भगवान् को बहुत उपसर्ग दिये और उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए बहुत प्रयत्न किये। किन्तु जब वह अपने प्रयत्न में सफल न हुआ तब डांस, मच्छर बन कर भगवान् के शिर, नाक, कान, पीठ आदि में तेज डंक मारे किन्तु जिस प्रकार प्रचण्ड वायु के चलने पर भी सुमेरु पर्वत का शिखर विचलित नहीं होता, उसी प्रकार भगवान् वर्द्धमान स्वामी को अविचलित देख कर वह शूलपाणि यत्र थक गया । तब भगवान् के चरणों में नमस्कार कर विनय पूर्वक इस तरह कहने लगा कि हे भगवन् ! मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा प्रदान कीजिये ।
उसी समय सिद्धार्थ नाम का व्यन्तर देव उस यक्ष को दण्ड देने के लिए दौड़ा और इस प्रकार कहने लगा कि अरे शूलपाणि यक्ष ! जिसकी कोई इच्छा नहीं करता ऐसे मरण की इच्छा करने वाला ! लज्जा, लक्ष्मी और कीर्ति से रहित, हीन पुण्य !
जानता है कि ये सम्पूर्ण संसार के प्राणियों तथा सुर, असुर, इन्द्र, नरेन्द्र द्वारा वन्दित, त्रिलोक पूज्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं । तेरे इस दुष्ट कार्य को यदि शक्रेन्द्र जान लेंगे तो वे तुझे अतिकठोर दण्ड देंगे ।
सिद्धार्थ व्यन्तर देव के वचनों को सुन कर वह शूलपाणि
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