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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला यह दो प्रकार का है-- सेतु और केतु । अरघट, नहर, कूमा वगैरह कृत्रिम उपायों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु और सिर्फ बरसात से सींची जाने वाली को केतु कहते हैं। (२) वास्तु-- घर । वह नीन प्रकार का होता है। खात अर्थात् भूमिगृह । उत्सृत अर्थात् जमीन के ऊपर बनाया हुआ महल वगैरह । खातोच्छित-- भूमिगृह के ऊपर बनाया हुआ महल । (३) हिरण्य-- चांदी, सिल या आभूषण के रूप में अर्थात् घड़ी हुई और बिना घड़ी हुई। (४) सुवर्ण-घड़ा हुआ तथा बिना घड़ा हुआ सोना। हीरा, माणिक, मोती आदि जवाहरात भी इसी में आजाते हैं । (५) धन-- गुड़, शकर आदि। (६) धान्य- चावल, मूंग, गेहूँ, चने, मोठ, बाजरा आदि । (७) द्विपद- दास दासी और मोर, हंस वगैरह। ... (८) चतुष्पद-- हाथी, घोड़े, गाय, भैंस वगैरह। (8) कुप्य-- सोने, बैठने, खाने, पीने, वगैरह के काम में आने वाली धातु की बनी हुई तथा दूसरी वस्तुएं अर्थात् घर बिखेरे की वस्तुएं।
( हरिभद्रीयावश्यक छठा, सूत्र १ वां ) ६४१- ज्ञाता (जाणकार) के नौ भेद
समय तथा अपनी शक्ति वगैरह के अनुसार काम करने वाला व्यक्ति ही सफल होता है और समझदार माना जाता है। उसके नौ भेद हैं-- (१) कालन- काम करने के अवसर को जानने वाला। (२) बलज्ञ- अपने बल को जानने वाला और शक्ति के अनुसार ही आचरण करने वाला। (३) मात्रज्ञ- कौनसी वस्तु कितनी चाहिए, इस प्रकार अपनी आवश्यकता के लिए वस्तु के परिमाण को जानने वाला।