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भी जैन सिद्धान्तपोल संग्रह
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पुत्र प्रादि का मरण, शत्रुओं से भय आदि कारणों से करुण रस उत्पन्न होता है। शोक करना, विलाप करना, उदासी तथा रोना इसके चिह्न हैं। जैसेपज्झाय किलामिश्र यं वाहागयवप्पु अच्छिणं पहुसो। तस्स विनोगे पुत्तिय ! दुवलय ते मुहं जायं ॥ - अर्थात्- बेटी! प्रियतम के वियोग में तेरा मुँह दुर्बल हो गया है। हमेशा उसका ध्यान करते हुए उदासी छा गई है। हमेशा आँसू टपकते रहने से आँखें मूज गई हैं, इत्यादि। (8) प्रशान्त रस-हिंसा आदि दोषों से रहित मन जब विषयों से निवृत्त हो जाता है और चित्त बिल्कुल स्वस्थ होता है तो शान्त रस की उत्पत्ति होती है। क्रोधादि न रहने से उस समय चित्त बिल्कुल शान्त होता है। किसी तरह का विकार नहीं रहता । जैसे
सम्भावनिविगारं उपसंतपसंत सोमदिट्ठीभं । ही जह मुणिणो सोहह मुहकमलं पीयरसिरीनं ॥
अर्थात्- शान्तमूर्ति साधु को देखकर कोई अपने समीप खड़े हुए व्यक्ति को कहता है- देखो ! मुनि का मुख रूपी कमल कैसी शोभादे रहा है ? जो अच्छे भावों के कारण विकार रहित है। सजावट तथा भ्रूविक्षेप आदि विकारों से रहित है। रूपादिदेखने की इच्छा न होने से शान्त तथा क्रोधादि न होने से सौम्यदृष्टि वाला है। इन्हीं कारणों से इस की शोभा बढ़ी हुई है।
(अनुयोगद्वार गाथा ६३ से ८१, सूत्र १२६ ) ६४०- परिग्रह नौ
ममत्व पूर्वक ग्रहण किए हुए धन धान्य भादि को परिग्रह कहते हैं। इसके नौ भेद हैं(१) क्षेत्र- धान्य उत्पन्न करने की भूमि को क्षेत्र कहते हैं।