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श्री जैन सिद्धान्त बोल संपह
स्वम दिखाई देने लगते हैं। - (७) अन्प-पानी वाला प्रदेश भी स्वम आने का निमित्त हैं।
(८) पुण्य- पुण्योदय से अच्छे स्वम आते हैं। (६) पाप-- पाप के उदय से बुरे स्वम आते हैं।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १७०३) ६३६-काव्य के रस नौ
कवि के अभिप्राय विशेष को काव्य कहते हैं। इस का लक्षण काव्य प्रकाश में इस प्रकार है- निर्दोष गुण वाले और अलङ्कार सहित शब्द और अर्थ को काव्य कहते हैं। कहीं कहीं बिना अलङ्कार के भी वे काव्य माने जाते हैं। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने तथा रसगङ्गाधर में जगनाथ पण्डितराज ने रसात्मक वाक्य को काव्य माना है। रीतिकार रीति को ही काव्य की आत्मा मानते हैं और ध्वनिकार ध्वनि को।
काव्य में रस का प्रधान स्थान है। नीरस वाक्य को काव्य नहीं कहा जा सकता। 4. विभावानुभावादि सहकारी कारणों के इकडे होने से चित्त में जो खास तरह के विकार होते हैं उन्हें रस कहते हैं। इनका अनुभव अन्तरात्मा के द्वारा किया जाता है। बाह्यार्थीलम्बनो यस्तु, विकारो मानसो भवत्। स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः॥ अर्थात-बाह्य वस्तुओं के सहारे से जो मन में विकार उत्पन होते हैं उन्हें भाव कहते हैं। भाव जब उत्कर्ष को प्राप्त कर लेते हैं तो वे रस कहे जाते हैं।
रस नौ हैं- (१) वीर (२) शृङ्गार (३) अद्भुत (४) रौद्र (५) व्रीडा (६)बीभत्स (७) हास्य (5) करुण और (8) प्रशान्त । (१) वीर रस- दान देने पर घमण्ड या पश्चात्ताप नहीं करना,