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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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में पहले अभिलाष अर्थात प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसके बाद कैसे प्राप्त किया जाय यह चिन्ता । फिर स्मरण । इसके बाद उस वस्तु के गुणों का बार बार कीर्तन । फिर उद्वेग अर्थात् प्राप्त न होने पर आत्मा में अशान्ति तथा ग्लानि । फिर प्रलाप, उन्माद, रोग, मूर्छा और अन्त में मरण तक हो जाता है। विषयों के प्राप्त न होने पर रोग उत्पन्न होते हैं। बहुत अधिक आसक्ति से राजयक्ष्मा आदि रोग हो जाते हैं।
. (ठाणांग, सूत्र ६६७) ६३८-स्वप्न के नौ निमित्त
अर्द्धनिद्रितावस्था में काल्पनिक हाथी, रथ, घोड़े आदि का दिखाई देना स्वम है। नीचे लिखे नौ निमित्तों में से किसी निमित्त वाली वस्तु ही स्वम में दिखाई देती है। वे निमित्त ये हैं(१) अनुभूत-- जो वस्तु पहले कभी अनुभव की जा चुकी है उसका स्वमाता है। जैसे- पहले अनुभव किए हुए स्नान, भोजन, विलेपन आदि का स्वप्न में दिखाई देना। (२) दृष्ट- पहले देखा हुआ पदार्थ भी स्वम में दिखाई देता है। जैसे- पहले कभी देखे हुए हाथी, घोड़े आदि स्वप्न में दिखाई देते हैं। (३) चिन्तित- पहले सोचे हुए विषय का स्वम आता है। जैसे- मन में सोची हुई स्त्री आदि की स्वप्न में प्राप्ति । (४) श्रुत- किसी सुनी हुई वस्तु का स्वम आता है। जैसेस्वम में स्वर्ग, नरक आदि का दिखाई देना। (५) प्रकृति विकार- वात, पित्त आदि किसी धातु कीन्यूनाधिकता से होने वाला शरीर का विकार प्रकृति विकार कहा जाता है। प्रकृति विकार होने पर भी स्वप्न पाता है। (६) देवता- किसी देवता के अनुकूल या प्रतिकूल होने पर