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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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६३५- नोकषाय वेदनीय नौ
क्रोध आदि प्रधान कषायों के साथ ही जो मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं के साथ फल देते हैं, उन्हें नोकषाय कहते हैं। ये स्वयं प्रधान नहीं होते। जैसे सुधका ग्रह दूसरे के साथ ही रहता है, साथ ही फल देता है, इसी तरह नोकषाय भी कषायों के साथ रहते तथा उन्हीं के साथ फल देते हैं । जो कर्म नोकषाय के रूप में वेदा जाता है उसे नोकषाय वेदनीय कहते हैं। इसके नौ भेद हैं(१) स्त्रीवेद- जिस के उदय से स्त्री को पुरुष की इच्छा होती है। जैसे- पित्त के उदय से मीठा खाने की इच्छा होती है। स्त्रीवेद छाणों की आग के समान होता है अर्थात् अन्दर ही अन्दर हमेशा बना रहता है। (२) पुरुषवेद-जिस के उदय से पुरुष को स्त्री की इच्छा होती है। जैसे श्लेष्म (कफ) के प्रकोप से खट्टी चीज खाने की इच्छा होती है। पुरुषवेद दावाग्नि के समान होता है। यह एक दम भड़क उठता है और फिर शान्त हो जाता है। (३) नपुंसकवेद-जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों की इच्छा हो। जैसे पित्त और श्लेष्म के उदय से स्नान की अभिलाषा होती है। यह बडे भारी नगर के दाह के समान होता है अर्थात् तेज और स्थायी दोनों तरह का होता है। __पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में उत्तरोत्तर वेदना की अधिकता रहती है। (४) हास्य- जिस के उदय से मनुष्य सकारण या बिना कारण हँसने लगे उसे हास्य कहते हैं। (५) रति- जिस के उदय से जीव की सचित्त या अचित्त बाह्य पदार्थों में रुचि हो, उसे रति कहते हैं।