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श्री. सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(६) अरति - जिसके उदय से बाह्य पदार्थों में अरुचि हो । (७) भय - जीव को वास्तव में किसी प्रकार का भय न होने पर भी जिस कर्म के उदय से इहलोक पारलोकादि सात प्रकार का भय उत्पन्न हो
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(८) शोक-जिसके उदय से शोक और रुदन आदि हों । (६) जुगुप्सा -- जिसके उदय से घृणा उत्पन्न हो ।
(ठाणांग, सूत्र ७०० )
६३६ - आयुपरिणाम नौ
हैं अर्थात्
आयुष्कर्म की स्वाभाविक शक्ति को आयुपरिणाम कहते कर्म जिस जिस रूप में परिणत होकर फल परिणाम है। इसके नौ भेद हैं
देता है वह
(१) गति परिणाम - आयुकर्म जिस स्वभाव से जीव को देव यदि निश्चित गतियाँ प्राप्त कराता है उसे गतिपरिणाम कहते हैं। (२) गतिबन्ध परिणाम आयु के जिस स्वभाव से नियत गति का कर्मबन्ध होता है उसे गतिबन्ध परिणाम कहते हैं। जैसे arth जीव मनुष्य यातिर्यञ्चगति की आयु ही बाँध सकता है, देवगति और नरकगति की नहीं ।
(३) स्थिति परिणाम - आयुष्य कर्म की जिस शक्ति से जीव गतिविशेष में अन्तर्मुहूर्त से लेकर तेतीस सागरोपम तक ठहरता है । ( ४ ) स्थितिबन्ध परिणाम- आयुष्य कर्म की जिस शक्ति से जीव आगामी भव के लिए नियत स्थिति की आयु बाँधता है उसे स्थितिबन्ध परिणाम कहते हैं। जैसे तिर्यश्च श्रायु में जीव देवगति की आयु बाँधने पर उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की ही बाँध सकता है।
( ५ ) ऊर्ध्वगौरव परिणाम - आयु कर्म के जिस स्वभाव से जीव में ऊपर जाने की शक्ति आजाती है। जैसे पक्षी आदि में ।
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