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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(६) संघ से प्रतिकूल चलने वाले को। (७) ज्ञान से विपरीत चलने वाले को। (८) दर्शन से विपरीत चलने वाले को। (६) चारित्र से विपरीत चलने वाले को। इन्हीं कारणों का सेवन करने वाले प्रत्यनीक कहलाते हैं।
(टाणांग, सूत्र ६६१) ६३३- तत्त्व नौ
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को तत्व कहते हैं। इन्हें सद्भाव पदार्थ भी कहा जाता है । तत्त्व नौ हैंजीवाऽजीवा पुण्णं पापाऽऽसव संवरो य निज़रणा। बंधो मुक्खो य तहा, नव तत्ता हुंति नायब्वा ।।
(नवतत्त्व, गाथा १) (१) जीव-जिसे सुख दुःख का ज्ञान होता है तथा जिसका उपयोग लक्षण है, उसे जीव कहते हैं। (२) अजीव- जड़ पदार्थों को या सुख दुःख के ज्ञान तथा उपयोग से रहित पदार्थों को अजीव कहते हैं। (३) पुण्य- कर्मों की शुभ प्रकृतियाँ पुण्य कहलाती हैं। (४) पाप-कर्मों की अशुभ प्रकृतियाँ पाप कहलाती हैं। (५) आस्रव- शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का कारण प्रास्त्रव कहलाता है। (६) संवर- समिति गुप्ति वगैरह से कर्मों के आगमन को रोकना संवर है। (७) निर्जरा- फलभोग या तपस्या के द्वारा कर्मों को धीरे धीरे खपाना निजेरा है।। (८) बन्ध- आस्रव के द्वारा आए हुए कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना. बन्ध है।