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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
संवरवरजलपगलिय उज्झरपविरायमाणहारस्स । सावगजणपउरखंतमोरनचंतकुहरस्स ॥ विणयनयपवरमुणिवर फुरतविज्जुज्जलंतसिहरस्स। विविह गुण कप्परुक्खग फलभर कुसुमाउलवणस्स ॥ नाणवररयणदिपंत कंतवेरुलिय विमलचूलस्स । वंदामि विणयपणो संघमहामंदरगिरिस्स ॥
इन गाथाओं में संघ की उपमा मेरु पर्वत से दी गई है। मेरु पर्वत के नीचे वज्रमय पीठ है, उसी के ऊपर सारा पर्वत ठहरा हुआ है। संघ रूपी मेरु के नीचे सम्यग्दर्शन रूपी वज्रपीठ है। सम्यग्दर्शन की नींव पर ही संघ खड़ा होता है। संघ में प्रविष्ट होने के लिए सब से पहिली बात है सम्यक्त्व की प्राप्ति । मेरु के वज्रपीठ की तरह संघ का सम्यग्दर्शन रूपी पीठ भी दृढ़, रूढ अर्थात् चिरकाल से स्थिर, गाढ़ अर्थात् ठोस तथा अवगाढ अथात गहरा फँसा हुआ है। शङ्का, कांक्षा आदि दोषों से रहित होने के कारण परतीर्थिक रूप जल का प्रवेश नहीं होने से सम्यग्दर्शन रूपी पीठ दृढ़ है अर्थात् विचलित नहीं हो सकता। चिन्तन, आलोचन, प्रत्यालोचन आदि से प्रतिसमय अधिकाधिक विशुद्ध होने के कारण चिरकाल तक रहने से रूढ़ है। तत्त्वविषयक तीव्र रुचि वाला होने से गाढ़ है। जीवादि पदार्थों के सम्यग्ज्ञान युक्त होने से हृदय में बैठा हुआ है अर्थात् अवगाढ़ है।
मेरु पर्वत के चारों तरफ रत्न जड़ी हुई सोने की मेखला है। संघरूपी मेरु के चारों तरफ उत्तरगुण रूपी रनों से जड़ी हुई मूलगुण रूपी मेखला है। मूलगुण उत्तरगुणों के बिना शोभा नहीं देते इसलिए मूलगुणों को मेखला और उत्तरगुणों को उसमें जड़े हुए रत्न कहा है। मेरु गिरि के ऊँचे, उज्वल