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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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ये सभी व्यन्तर मनुष्य क्षेत्रों में इधर उधर घूमते रहते हैं। टूटे फूटे घर, जंगल और शून्य स्थानों में रहते हैं। __ स्थान- रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन में सौ योजन ऊपर तथा सौ योजन नीचे छोड़कर बीच के आठ सौ योजन तिर्खे लोक में वाणव्यन्तरों के असंख्यात नगर हैं । वे नगर बाहर से गोल, अन्दर समचौरस तथा नीचे कमल की कर्णिका के आकार वाले हैं। ये पर्याप्त तथा अपर्याप्त देवों के स्थान बताए गए हैं। वैसे उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवाँ भाग उनका स्थान है। वहाँ आठों प्रकार के व्यन्तर रहते हैं । गन्धर्व नाम के व्यन्तर संगीत से बहुत प्रीति करते हैं। वे भी आठ प्रकार के होते हैं- आणपनिक, पाणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक,कंदित, महाकदित, कुहंड और पतंगदेव । वे बहुत चपल, चञ्चल चित्त वाले तथा क्रीड़ा और हास्य को पसन्द करने वाले होते हैं। हमेशा विविध
आभूषणों से अपने सिंगारने में अथवा विविध क्रीड़ाओं में लगे रहते हैं। वे विचित्र चिह्नों वाले, महाऋद्धि वाले, महाकान्ति वाले, महायश वाले, महाबल वाले, महासामध्ये वाले तथा महा सुख वाले होते हैं।
व्यन्तर देवों के इन्द्र अर्थात् अधिपतियों के नाम इस प्रकार हैंपिशाचों के काल तथा महाकाल। भूतों के सुरूप और प्रतिरूप । यतों के पूर्णभद्र और मणिभद्र । राक्षसों के भीम और महाभीम। किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुष । किम्पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष । महोरगों के अतिकाय और महाकाय। गन्धवों के गीतरति और गीतयश । काल इन्द्र दक्षिण दिशा का है और महाकाल उत्तर दिशा का। इसी तरह मुरूप और प्रतिरूप वगैरह को भी जानना चाहिए।