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श्री सेठिया जैन ग्रन्धमाला
आनन्द मनाने वाले होते है। वे रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन वाले रत्नकाण्ड में नीचे सौ योजन तथा ऊपर सौ योजन छोड़ कर बीच के आठ सौ योजनों में रहते है। इनके आठ भेद हैं
(१) आणपएणे (२) पाणपएणे (३) इसिवाई (ऋषिवादी) (४) भूयवाई (भूतवादी) (५) कन्दे (६) महाकन्दे (७) कुह्माण्ड (कूष्माण्ड) (८) पयदेव (प्रेत देव) । (उववाई सूत्र २४) (पन्नवणा पद २) ६१४- व्यन्तर देव आठ
वि अर्थात् आकाश जिनका अन्तर अवकाश अर्थात् आश्रय है उन्हें व्यन्तर कहते हैं। अथवा विविध प्रकार के भवन, नगर
और आवास रूप जिनका आश्रय है । रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले रत्नकाण्ड में सो योजन ऊपर तथा सो योजन नीचे छोड़ कर बाकी के आठ सौ योजन मध्यभाग में भवन हैं। तिर्यक् लोक में नगर होते हैं। जैसे- तिर्यक लोक में जम्बूद्वीप द्वार के अधिपति विजयदेव की बारह हजार योजन प्रमाण नगरी है। आवास तीनों लोकों में होते हैं। जैसे ऊर्ध्वलोक में पंडकवन वगैरह में आवास हैं। अथवा 'विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः' जिनका मनुष्यों से अन्तर अर्थात् फरक नहीं रहा है, क्योंकि बहुत से व्यन्तर देव चक्रवर्ती, वासुदेव वगैरह की नौकर की तरह सेवा करते हैं। इसलिए मनुष्यों से उनका भेद नहीं है । अथवा 'विविधमन्तरमाश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः' पर्वत, गुफा, वनखण्ड वगैरह जिनके अन्तर अर्थात् आश्रय विविध हैं, वे व्यन्तर कहलाते हैं। सूत्रों में 'वाणमन्तर' पाठ है ‘वनानामन्तरेषु भवाः वानमन्तराः' पृषोदरादि होने से बीच में मकार आगया। अर्थात् वनों के अन्तर में रहने वाले । इनके आठ भेद हैं(१) पिशाच (२) भूत (३) यक्ष (४) राक्षस (५) किन्नर (६) किम्पुरुष (७) महोरग (-) गन्धर्व ।