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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १२५ किसी का पक्ष लिए मध्यस्थभाव रक्खे । दिल में यह भावना करे कि किस तरह ये सब साधर्मिक जोर जोर से बोलना, असम्बद्ध प्रलाप तथा तू तू मैं मैं वाले शब्द छोड़ कर शान्त, स्थिर तथा प्रेम वाले हों। हर तरह से उनका कलह दूर करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। (ठाणांग, सूत्र ६४६ ) ६०७-रुचक प्रदेश आठ . रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर तिर्यक लोक के मध्य भाग में एक राजु परिमाण आयाम विष्कम्भ (लम्बाई चौड़ाई) वाले आकाश प्रदेशों के दो प्रतर हैं। वे प्रतर सब प्रतरों से छोटे हैं। मेरु पर्वत के मध्य प्रदेश में इनका मध्यभाग है। इन दोनों प्रतरों के बीचोबीच गोस्तनाकार चार चार आकाश प्रदेश हैं। ये आठों आकाश प्रदेश जैन परिभाषा में रुचक प्रदेश कहे जाते हैं। ये हीरुचक प्रदेश दिशा और विदिशाओं की मर्यादा के कारणभूत हैं। (पाचारांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन 1 उद्देशा १ टीका) उक्त आठों रुचक प्रदेश अाकाशास्तिकाय के हैं। आकाशास्तिकाय के मध्यभागवर्ती होने से इन्हें आकाशास्तिकाय मध्य प्रदेश भी कहते हैं। आकाशास्तिकाय की तरह ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के मध्य भाग में भी पाठ पाठ रुचक प्रदेश रहे हुए हैं। इन्हें क्रमशः धर्मास्तिकाय मध्यप्रदेश और अधर्मास्तिकाय मध्यप्रदेश करते हैं । जीव के भी आठ रुचक प्रदेश हैं जो जीव के मध्यप्रदेश कहलाते हैं। जीव के ये आठों रुचक प्रदेश सदा अपने शुद्ध स्वरूप में रहते हैं। इन पाठ प्रदेशों के साथ कभी कर्मबन्ध नहीं होता। भव्य, अभव्य सभी जीवों के रुचक प्रदेश सिद्ध भगवान् के प्रात्मप्रदेशों की तरह शुद्ध स्वरूप में रहते हैं। सभी जीव समान है निश्चय नय का यह कयन इसी अपेक्षा से है। ( प्रागमसार ) ( भग• श.८ उ०६ ) ( ठाणांग ८, सूत्र ६२४)
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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