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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(२) उद्रेग- काम करते हुए चित्त में उद्वेग अर्थात् उदासी रहना, उत्साह का न होना दूसरा दोष है। (३) भ्रान्ति-- चित्त में भ्रान्ति रहना अर्थात् कुछ का कुछ समझ लेना भ्रान्ति नाम का तीसरा दोष है। (४) उत्थान- किसी एक कार्य में मन का स्थिर न होना, चञ्चलता बनी रहना उत्थान नाम का चौथा दोष है। (५) क्षेप-प्रारम्भ किए हुए कार्य को छोड़ कर नए नए कार्यों की तरफ मन का दौड़ना क्षेप नाम का पाँचवा दोष है। (६) आसंग--किसी एक बात में लीन होकर सुधबुध खो बैठना प्रासंग नाम का छठा दोष है। (७) अन्यमद्- अवसर प्राप्त कार्य को छोड़ कर और और कामों में लगे रहना अन्यमद् नाम का सातवाँ दोष है। (८) रुक्-- कार्य को प्रारम्भ करके छोड़ देना रुक नाम का
आठवाँ दोष है। (कर्तव्य कौमुदी भाग २ श्लोक १६०.१६१) ६०४- महाग्रह आठ
जिन के अनुकूल और प्रतिकूल होने से मनुष्य तथा तिर्यश्चों को शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है उन्हें महाग्रह कहते हैं। ये आठ हैं- (१) चन्द्र (२) सूर्य (३) शुक्र (४) बुध (५) बृहस्पति (६) अंगार (मंगल) (७) शनैश्वर (८) केतु । ( ठाणांग, सूत्र ६१२ ) ६०५- महानिमित्त आठ
भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के जो पदार्थ इन्द्रियों के विषय नहीं हैं उन्हें जानने में हेतु भूत बातें निमित्त कहलाती हैं। उन बातों को बताने वाले शास्त्र भी निमित्त कहलाते हैं। मूत्र, वार्तिक आदि के भेद से प्रत्येक शास्त्र लाखों श्लोक परिमाण हो जाता है। इस लिये यह महानिमिन कहलाता है। महा